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प्रसंग

• यह संपादकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विशेषकर ऑनलाइन सामग्री के नियमन में न्यायिक अतिक्रमण के खतरे को रेखांकित करता है।
• परंपरागत रूप से कार्यपालिका और विधायिका को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा माना जाता रहा है, लेकिन हालिया सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियां न्यायपालिका की भूमिका पर भी प्रश्न उठाती हैं।
• स्वायत्त नियामक निकायों के गठन और मसौदा दिशानिर्देशों पर जनपरामर्श के सुझावों से यह आशंका उत्पन्न होती है कि न्यायालय अपने संवैधानिक दायरे से आगे बढ़ रहे हैं।

मूल समस्या

• मुख्य प्रश्न यह है कि न्यायालयों का दायित्व अभिव्यक्ति को नियंत्रित करना है या संविधान के तहत उसकी रक्षा करना।
• अनुच्छेद 19(1)(क) के अंतर्गत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार है।
• इस पर केवल वही युक्तिसंगत प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं जो अनुच्छेद 19(2) में स्पष्ट रूप से सूचीबद्ध हैं।
• समस्या तब उत्पन्न होती है जब न्यायालय नए नियामक तंत्र सुझाते हैं या अपने समक्ष आए मामले के दायरे का विस्तार करते हैं।

न्यायालयों द्वारा उत्पन्न चिंताएं

• नए नियामक ढांचों का सुझाव देना।
• अप्रत्यक्ष रूप से पूर्व सेंसरशिप या पूर्व नियंत्रण को बढ़ावा देना।
• मूल कानूनी प्रश्न से आगे बढ़कर व्यापक नीतिगत मुद्दों पर विचार करना।
• इससे न्यायिक पुनरीक्षण और कानून निर्माण के बीच की संवैधानिक सीमा धुंधली हो जाती है।

मौजूदा कानूनी ढांचे की पर्याप्तता

• भारत में अभिव्यक्ति और ऑनलाइन सामग्री के लिए पहले से विस्तृत कानून मौजूद हैं।
• सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66, 66ई और 66एफ साइबर अपराध, निजता उल्लंघन और साइबर आतंकवाद से संबंधित हैं।
• भारतीय न्याय संहिता की धारा 294 से 296 अश्लीलता को दंडनीय बनाती हैं।
• सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यस्थ दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 सामग्री नियंत्रण की व्यवस्था प्रदान करते हैं।
• कार्यपालिका के अधीन निगरानी तंत्र पहले से कार्यरत है, इसलिए अतिरिक्त न्यायिक नियमन की आवश्यकता संदिग्ध है।

न्यायिक अतिक्रमण और दायरे का विस्तार

• संपादकीय न्यायालय द्वारा मामले के दायरे के विस्तार पर चिंता व्यक्त करता है।
• एक सीमित प्राथमिकी से जुड़े मामले को “आपत्तिजनक” ऑनलाइन सामग्री के व्यापक नियमन से जोड़ दिया गया।
• ऑनलाइन नियमन मूल रूप से न्यायालय के समक्ष विचाराधीन विषय नहीं था।
• डिजिटल मीडिया नियमन में न्यायालयों के पास तकनीकी विशेषज्ञता का अभाव है।
• अभिव्यक्ति के नियमन में नीतिगत निर्णय शामिल होते हैं, जो विधायिका के क्षेत्राधिकार में आते हैं।

न्यायिक दृष्टांत और चेतावनियां

• कॉमन कॉज बनाम भारत संघ (2008) में न्यायालयों को अपनी संस्थागत सीमाएं पहचानने की चेतावनी दी गई।
• सहारा इंडिया रियल एस्टेट कॉरपोरेशन बनाम सेबी (2012) में प्रकाशन पर रोक को अंतिम उपाय माना गया।
• कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) में यह दोहराया गया कि प्रतिबंध केवल अनुच्छेद 19(2) तक सीमित होने चाहिए।
• इन सीमाओं से परे कोई भी प्रतिबंध असंवैधानिक होगा।

संवैधानिक व्यवस्था और शक्तियों का पृथक्करण

• विधायिका का कार्य कानून निर्माण और नियमन करना है।
• कार्यपालिका का कार्य कानूनों का क्रियान्वयन है।
• न्यायपालिका का कार्य संविधान की व्याख्या और न्यायनिर्णयन है।
• संविधान सभा की बहसों में सर्वोच्च न्यायालय को युक्तिसंगतता का निर्णायक माना गया, न कि प्रतिबंधों का निर्माता।

तुलनात्मक अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण

• अधिकांश लोकतंत्र हानिकारक सामग्री को हटाने पर जोर देते हैं, न कि पूर्व सेंसरशिप पर।
• यूरोपीय संघ का डिजिटल सर्विसेज अधिनियम, 2022।
• जर्मनी का नेटवर्क प्रवर्तन अधिनियम, 2017।
• यूनाइटेड किंगडम का ऑनलाइन सेफ्टी अधिनियम, 2023।
• ऑस्ट्रेलिया का ऑनलाइन सेफ्टी अधिनियम, 2021।
• चीन और रूस जैसे देशों में निगरानी और पूर्व सेंसरशिप का मॉडल अपनाया जाता है।

निष्कर्ष

• अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की बुनियाद है।
• न्यायालयों का कर्तव्य इसका संरक्षण करना है, न कि इसका नियमन।
• न्यायिक आत्म-संयम और शक्तियों के पृथक्करण का सम्मान आवश्यक है।
• कठोर कानूनों की निरंतर मांग और कार्यपालिका की तत्पर स्वीकृति नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए खतरा है।
• अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए न्यायिक सजगता जरूरी है, न्यायिक हस्तक्षेप नहीं।


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