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संदर्भ

ग्रेट निकोबार द्वीप परियोजना ₹72,000 करोड़ की एक विशाल अवसंरचना योजना है, जिसमें एक ट्रांसशिपमेंट पोर्ट, नगर, विद्युत संयंत्र और हवाई अड्डा सम्मिलित हैं। इस परियोजना ने पर्यावरणीय अधिकारों और पारिस्थितिक न्याय पर बहस को पुनर्जीवित कर दिया है। यह लगभग 130 वर्ग किलोमीटर अछूते उष्णकटिबंधीय वनों को नष्ट करने की धमकी देती है, जो अंडमान और निकोबार जैव विविधता हॉटस्पॉट का हिस्सा हैं। इससे यह कानूनी और नैतिक प्रश्न उठता है कि भारत विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन कैसे स्थापित करता है।

संपादकीय का तर्क है कि ग्रेट निकोबार विवाद ने “प्रकृति के अधिकारों” पर चर्चा को पुनः जीवंत किया है, जिससे भारत की पर्यावरणीय प्रशासन प्रणाली में कमियों का पता चलता है और यह आवश्यकता रेखांकित होती है कि पारिस्थितिक तंत्रों को कानूनी रूप से अधिकार-संपन्न इकाइयों के रूप में मान्यता दी जाए।

1. न्यायिक दृष्टांत: नियमगिरि प्रकरण से सीख

सुप्रीम कोर्ट के 2013 के निर्णय ओडिशा माइनिंग कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (नियमगिरि पहाड़ प्रकरण) ने स्वदेशी और पारिस्थितिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक सशक्त दृष्टांत स्थापित किया। अदालत ने ग्राम सभा को यह अधिकार प्रदान किया कि वे वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA) के अंतर्गत अपनी सांस्कृतिक, पर्यावरणीय और आजीविका संबंधी अधिकारों को प्रभावित करने वाले खनन प्रस्तावों पर निर्णय लें। इसने सामुदायिक सहमति के सिद्धांत को बरकरार रखा और ग्राम सभा को परंपराओं, संसाधनों तथा समुदाय की पहचान की रक्षा का दायित्व सौंपा।

ग्रेट निकोबार से प्रासंगिकता: यही सिद्धांत यहाँ भी लागू हो सकता है, क्योंकि यह रिपोर्ट किया गया है कि वन विचलन की स्वीकृति से पूर्व लिटिल और ग्रेट निकोबार की जनजातीय परिषद से परामर्श नहीं किया गया। यह अनुसूचित जनजाति तथा अन्य परंपरागत वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 का उल्लंघन है, जो सहभागी पर्यावरणीय निर्णय-निर्माण का प्रमुख उपकरण है।

2. प्रकृति के अधिकार और वैश्विक प्रवृत्तियाँ

कई देशों जैसे बोलीविया, इक्वाडोर, कोलंबिया और न्यूज़ीलैंड ने “पृथ्वी न्यायशास्त्र” या Rights of Nature दृष्टिकोण अपनाया है, जिसके अंतर्गत नदियों, वनों और पारिस्थितिक तंत्रों को विधिक इकाई के रूप में अस्तित्व, विकास और पुनर्जनन का अधिकार प्रदान किया गया है। इक्वाडोर का संविधान (2008) प्रकृति को कानूनी व्यक्तित्व प्रदान करने वाला पहला था। न्यूज़ीलैंड की व्हांगानुई नदी (2017) और कोलंबिया की आत्रातो नदी (2016) को भी अधिकार-संपन्न इकाई के रूप में मान्यता दी गई, और उनके प्रतिनिधित्व हेतु सामुदायिक संरक्षकों की नियुक्ति की गई। ये वैश्विक उदाहरण प्राकृतिक तंत्रों को “अधिकारों के विषय” के रूप में देखते हैं, संपत्ति के रूप में नहीं — जिससे मानव-केंद्रित दृष्टिकोण से पारिस्थितिक-केंद्रित न्यायशास्त्र की ओर परिवर्तन दर्शाता है।

3. भारत में प्रकृति के अधिकारों पर विकसित न्यायशास्त्र

भारतीय न्यायालयों ने समय-समय पर प्राकृतिक इकाइयों को कानूनी व्यक्तित्व प्रदान करने के विचार के प्रति खुलापन दिखाया है। मो. सलीम बनाम उत्तराखंड राज्य (2017) में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना नदियों तथा उनसे संबद्ध हिमनदों को “जीवित इकाइयाँ” घोषित किया, जिनके अधिकार और कर्तव्य हैं। हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय पर रोक लगाई, क्योंकि अभिरक्षकता और उत्तरदायित्व को लेकर अस्पष्टता थी। इसके बावजूद, यह निर्णय एक प्रगतिशील कानूनी दिशा को इंगित करता है — यह स्वीकार करते हुए कि प्रकृति को भी विधिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है। ग्रेट निकोबार विवाद ने इस चर्चा को पुनः जीवंत किया है — यह प्रश्न उठाते हुए कि क्या पारिस्थितिक तंत्रों को केवल संसाधन नहीं, बल्कि अधिकार-संपन्न इकाई के रूप में कानूनी संरक्षण प्राप्त होना चाहिए।

4. ग्रेट निकोबार मामला: कानूनी एवं नैतिक चिंताएँ

(क) पारिस्थितिक प्रभाव: यह परियोजना 130 वर्ग किलोमीटर से अधिक वन भूमि को विचलित करेगी, जिससे प्राचीन वर्षा वनों और शोम्पेन तथा निकोबारी जनजातीय समुदायों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। रिपोर्टों (अगस्त 2025) से पता चला कि अंडमान और निकोबार प्रशासन ने यह झूठा दावा किया कि वन अधिकार अधिनियम के तहत जनजातीय अधिकारों का निपटान पहले ही हो चुका था — जो वैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन है।

(ख) पर्यावरणीय प्रशासन की कमी: यह घटना पर्यावरणीय आकलन और निगरानी में संस्थागत विफलता को दर्शाती है। ग्राम सभा से पारदर्शी परामर्श किए बिना निर्णय लिए गए, जो पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) और वन संरक्षण मानकों का उल्लंघन है। यह वही प्रवृत्ति दर्शाता है जो टिहरी, सरदार सरोवर और केले कारो जैसी परियोजनाओं में देखी गई — जहाँ औद्योगिक उद्देश्यों को पारिस्थितिक अधिकारों पर प्राथमिकता दी गई। संपादकीय का मत है कि ग्रेट निकोबार परियोजना भारत के केंद्रीकृत पर्यावरणीय शासन का प्रतीक है, जहाँ “मुख्यभूमि का विकासवादी तर्क” द्वीपों की पारिस्थितिक विशिष्टता को नजरअंदाज करता है।

5. कोलंबिया का उदाहरण: कानूनी अभिरक्षकता मॉडल

कोलंबिया के 2016 के आत्रातो नदी के निर्णय ने एक व्यावहारिक ढाँचा प्रस्तुत किया। इसने जैव-सांस्कृतिक अधिकारों को मान्यता दी — जिसमें स्वदेशी समुदायों की सुरक्षा को पारिस्थितिक पुनर्स्थापन से जोड़ा गया। स्थानीय समुदायों और सरकारी प्रतिनिधियों से मिलकर एक “अभिरक्षक परिषद” का गठन किया गया, जो नदी की रक्षा के लिए उत्तरदायी थी। भारत भी ग्रेट निकोबार जैसे पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में ऐसा सामुदायिक-अभिरक्षक मॉडल अपना सकता है, जिससे राज्य और स्थानीय जनजातियाँ मिलकर जैव विविधता की संयुक्त संरक्षक बनें।

6. आगे का मार्ग: पारिस्थितिक-केंद्रित शासन की दिशा में

(क) विधिक सुधार: वन अधिकार अधिनियम, 2006 में संशोधन कर प्रकृति के अधिकार और सामुदायिक अभिरक्षकता को स्पष्ट रूप से सम्मिलित किया जाए। पर्यावरणीय विवादों में पारिस्थितिक तंत्रों को वैधानिक स्थिति (Legal Standing) प्रदान की जाए।

(ख) सहभागी पर्यावरणीय शासन: जनजातीय और वनवासी समुदायों से पूर्व, स्वतंत्र और सूचित सहमति (FPIC) सुनिश्चित की जाए। सभी बड़ी परियोजनाओं के लिए, विशेषकर पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में, सार्वजनिक पर्यावरणीय सुनवाई अनिवार्य की जाए।

(ग) “पारिस्थितिक व्यक्तित्व” की मान्यता: यह विधिक रूप से स्थापित किया जाए कि वन, नदियाँ और पारिस्थितिक तंत्र अधिकारयुक्त इकाइयाँ हैं। जनजातीय परिषदों, स्थानीय निकायों और नागरिक समाज को इन तंत्रों के अभिरक्षक या न्यासी के रूप में सशक्त किया जाए।

निष्कर्ष

ग्रेट निकोबार परियोजना विकास और पर्यावरणीय न्याय के बीच विद्यमान तनाव को उजागर करती है। संपादकीय का आह्वान है कि भारत को औपचारिक पर्यावरणीय स्वीकृतियों से आगे बढ़ते हुए “अधिकार-आधारित पारिस्थितिक न्यायशास्त्र” की दिशा में अग्रसर होना चाहिए, जहाँ स्वयं प्रकृति एक हितधारक बने। वैश्विक उदाहरणों से प्रेरणा लेते हुए और भारत के संवैधानिक सिद्धांतों (अनुच्छेद 48(क) तथा 51(क)(g)) में निहित मूल्यों पर आधारित होकर, पारिस्थितिक तंत्रों को कानूनी व्यक्तित्व प्रदान करना भारत के पर्यावरणीय शासन को पुनर्परिभाषित कर सकता है — जिससे विकास की प्रक्रिया भारत की नाजुक पारिस्थितिक एवं सांस्कृतिक पहचान को मिटाए बिना आगे बढ़ सके।


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