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प्रसंग

नई दिल्ली में हाल ही में हुए बम विस्फोट, जिसमें निर्दोष लोगों की मृत्यु हुई, ने एक बार फिर जम्मू-कश्मीर में हिंसा और疎पन के चक्र को उजागर कर दिया है। कश्मीर के प्रमुख धार्मिक और राजनीतिक विचारकों में से एक लेखक इस स्थिति में शांति स्थापना के लिए मानवीय, सहानुभूतिपूर्ण और न्याय-आधारित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर बल देते हैं।

लेख यह रेखांकित करता है कि जहाँ सुरक्षा-केन्द्रित उपाय केवल बाहरी लक्षणों को दबाते हैं, वहीं वास्तविक मेल-मिलाप के लिए न्याय, गरिमा और सहानुभूति पर आधारित संवाद अत्यंत आवश्यक हैं।

प्रमुख मुद्दे

1. शीघ्र आरोप-प्रत्यारोप की प्रवृत्ति

आतंकवादी घटनाओं के बाद मीडिया और जन-विमर्श में अक्सर किसी समुदाय या धर्म को तुरंत दोषी ठहरा दिया जाता है।
यह सामूहिक संदेह सामान्य कश्मीरी नागरिकों—विशेषकर घाटी के बाहर रहने वाले विद्यार्थियों और पेशेवरों—को अलग-थलग कर देता है।
इस प्रकार का रूढ़िबद्धकरण अविश्वास और भय को बढ़ाता है, जिससे कश्मीर और देश के शेष भाग के बीच दूरी और गहरी होती है।

2. सामूहिक दंड की प्रवृत्ति

आरोपित आतंकवादियों के परिजनों के घरों को ढहाना या परिवारों को प्रताड़ित करना अब आम होता जा रहा है।
लेखक का मानना है कि घर केवल ईंट-पत्थर का ढांचा नहीं होता, बल्कि स्मृतियों और अस्तित्व का आधार होता है।
ऐसी कार्रवाइयाँ निर्दोष लोगों को दंडित करती हैं और अपमान का नया चक्र उत्पन्न करती हैं, जिससे असंतोष और बढ़ता है।

3.पन और नागरिक स्वतंत्रताओं का ह्रास

लगातार पुलिस निगरानी, नौकरी की असुरक्षा और संपत्ति जब्ती जैसी स्थितियों ने युवाओं में घुटन और निराशा की भावना को बढ़ाया है।
नागरिक स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध और अवसरों की कमी युवाओं को हताशा की ओर धकेलती है, आतंकवाद की ओर नहीं।
अनुच्छेद 370 को हटाए जाने और डोमिसाइल तथा भूमि अधिकारों में बदलाव ने जनसांख्यिकीय बदलाव और पहचान खोने की आशंकाओं को और गहरा किया है।

मेल-मिलाप की दिशा

1. मानव-केंद्रित दृष्टिकोण

जम्मू-कश्मीर को केवल कानून-व्यवस्था की समस्या मानकर नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे एक मानवीय और राजनीतिक वास्तविकता के रूप में समझते हुए न्याय, गरिमा और विश्वास-निर्माण की आवश्यकता है।
नीतिनिर्माताओं को दंडात्मक नीति के स्थान पर उपचार और सहानुभूति पर आधारित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

2. संवाद और समावेशन

स्थायी शांति केवल संवाद और समावेशिता से प्राप्त की जा सकती है।
हथियार और सामूहिक दंड रोष उत्पन्न करते हैं; जबकि संवाद विश्वास और भरोसा बढ़ाता है।

3. युवाओं का सशक्तिकरण

लेखक युवाओं से हिंसा से दूर रहने और शांतिपूर्ण तथा रचनात्मक प्रयासों में सहभागी बनने का आग्रह करते हैं।
गरिमा और सहभागिता पर आधारित शासन व्यवस्था युवाओं में आशा, आत्मसम्मान और अवसरों का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।

निष्कर्ष

शांति हिंसा की दीवारों पर नहीं टिक सकती; उसका आधार न्याय, सहानुभूति और संवाद होना चाहिए।

जम्मू-कश्मीर में दीर्घकालिक स्थिरता के लिए आवश्यक है कि नीति दमन और भय पर नहीं, बल्कि विश्वास, गरिमा और लोकतांत्रिक भागीदारी की पुनर्स्थापना पर आधारित हो। यही मार्ग疎पन को स्वीकार्यता में और निराशा को आशा में परिवर्तित कर सकता है।


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