The Hindu Editorial Analysis in Hindi
7 November 2025
दूसरा मुद्दा
(Source – The Hindu, International Edition – Page No. – 8)
विषय: जीएस 2: स्वास्थ्य से संबंधित सामाजिक क्षेत्र/सेवाओं के विकास और प्रबंधन से संबंधित मुद्दे
संदर्भ
सरोगेसी (गर्भाधान) कानून की उदार व्याख्या उन दंपतियों को अधिक अवसर प्रदान कर सकती है जो संतान प्राप्ति के लिए चिकित्सकीय सहायता की आवश्यकता रखते हैं।

प्रस्तावना
द्वितीय संतान के लिए सरोगेसी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की समीक्षा ने प्रजनन अधिकारों तथा राज्यीय विनियमन (State Regulation) की सीमा पर पुनः बहस छेड़ दी है। द्वितीयक बाँझपन (Secondary Infertility) से ग्रस्त एक दंपति ने सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 को चुनौती दी है, यह तर्क देते हुए कि केवल निःसंतान दंपतियों तक सरोगेसी को सीमित करना संविधान प्रदत्त गोपनीयता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पारिवारिक स्वायत्तता के अधिकारों का उल्लंघन है।
सर्वोच्च न्यायालय और द्वितीय संतान सरोगेसी : मूल प्रश्न
सर्वोच्च न्यायालय के हालिया अवलोकनों ने इस प्रश्न को पुनर्जीवित किया है कि कानून का उद्देश्य क्या है — नैतिकता का संरक्षण, समानता का पालन या व्यक्तिगत विकल्प का सम्मान?
यह मामला ऐसे दंपति से संबंधित है जिन्हें एक जैविक संतान है, परंतु द्वितीयक बाँझपन के कारण वे सरोगेसी के माध्यम से दूसरी संतान चाहते हैं।
याचिका की पृष्ठभूमि
- द्वितीयक बाँझपन का अर्थ है — किसी दंपति द्वारा एक या अधिक जैविक संतानें होने के पश्चात गर्भधारण या गर्भ को पूर्ण अवधि तक धारण करने में असमर्थ होना।
- इसके सामान्य कारणों में पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम (PCOS), एंडोमीट्रियोसिस, तथा जीवनशैली से जुड़ी समस्याएँ शामिल हैं।
- याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि “बाँझपन” (Infertility) की परिभाषा, जैसा कि ART अधिनियम तथा सरोगेसी अधिनियम में दी गई है, केवल प्राथमिक बाँझपन तक सीमित नहीं होनी चाहिए।
- उनके अधिवक्ता ने यह भी कहा कि प्रजनन संबंधी निर्णय व्यक्ति के गोपनीयता अधिकार का अंग हैं, और राज्य को नागरिकों के निजी प्रजनन निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
प्रासंगिक विधिक प्रावधान
- धारा 4(iii)(C)(II), सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के अनुसार, सरोगेसी केवल उन दंपतियों के लिए अनुमन्य है जिनकी कोई भी जीवित संतान नहीं है — चाहे वह जैविक, दत्तक या सरोगेसी के माध्यम से उत्पन्न हो।
- अपवाद: यदि मौजूदा संतान मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग हो अथवा जीवन-घातक रोग से पीड़ित हो, तभी छूट दी जा सकती है।
- सरकार का पक्ष: सरोगेसी को मौलिक अधिकार नहीं माना जा सकता क्योंकि यह किसी अन्य महिला के शरीर के उपयोग से संबंधित है, अतः इसका कठोर विनियमन आवश्यक है।
न्यायालय की प्रारंभिक टिप्पणियाँ
न्यायपीठ ने मौखिक रूप से कहा कि ऐसे प्रतिबंध अधिनियम के अंतर्गत “युक्तिसंगत” हो सकते हैं।
हालाँकि, न्यायालय ने यह भी स्वीकार किया कि वह इस विषय की समीक्षा करेगा कि क्या यह प्रतिबंध द्वितीयक बाँझपन से ग्रस्त दंपतियों के प्रजनन स्वायत्तता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
नीति-परिप्रेक्ष्य और विधायी उद्देश्य
संसद में हुई बहस के दौरान इस कानून के मुख्य उद्देश्यों को निम्न रूप में स्पष्ट किया गया था —
- व्यावसायिक तथा शोषणकारी सरोगेसी को रोकना।
- कमजोर वर्ग की महिलाओं को जबरदस्ती या लालच से सरोगेसी में धकेले जाने से बचाना।
- ART (सहायक प्रजनन तकनीक) अधिनियम के साथ मिलकर प्रजनन क्लिनिकों का विनियमन।
हाल में, सर्वोच्च न्यायालय ने उन दंपतियों के लिए आयु सीमा में छूट दी थी जिनके जमे हुए भ्रूण (Frozen Embryos) अधिनियम लागू होने से पहले संरक्षित थे — जो न्यायालय की अधिक लचीली व्याख्या की ओर संकेत करता है।
व्यापक नैतिक और सामाजिक आयाम
भारत में परिवार में बच्चों की संख्या को सीमित करने वाला कोई राष्ट्रीय कानून नहीं है।
कुछ राज्य दो-संतान नीति को प्रोत्साहित करने हेतु प्रोत्साहन या अयोग्यता की शर्तें लागू करते हैं, परंतु किसी ने भी कानूनी प्रतिबंध नहीं लगाया है।
आलोचकों का तर्क है कि प्राथमिक और द्वितीयक बाँझपन के बीच भेद करना केवल औपचारिक विभाजन है, जबकि कानून का वास्तविक उद्देश्य शोषण-निरोध, न कि परिवार-आकार-नियंत्रण है।
आगे की राह : समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता
सरोगेसी अधिनियम की व्यापक व्याख्या निम्नलिखित लक्ष्यों को सशक्त कर सकती है —
- व्यक्तियों के प्रजनन अधिकार और गोपनीयता की रक्षा।
- चिकित्सकीय प्रौद्योगिकी तक समान पहुँच सुनिश्चित करना।
- महिलाओं को व्यावसायिक शोषण से सुरक्षा प्रदान करना।
अंततः, स्वायत्तता और नैतिकता के मध्य संतुलन ही भारत में विकसित होती प्रजनन-न्याय व्यवस्था का मार्गदर्शक सिद्धांत होना चाहिए।
निष्कर्ष
जब भारत नैतिक सुरक्षा-प्रबंधों और वैज्ञानिक प्रगति के मध्य संतुलन बनाने का प्रयास कर रहा है, तब न्यायालय की व्याख्या आने वाले समय में प्रजनन न्याय (Reproductive Justice) के स्वरूप को निर्धारित करेगी।
कानून की प्रगतिशील व्याख्या व्यक्तिगत स्वायत्तता को सुदृढ़ करते हुए व्यावसायिक शोषण को रोक सकती है।
वास्तविक चुनौती संवेदनशील और करुणामय विनियमन सुनिश्चित करने में है — जहाँ विज्ञान समाज की सेवा करे, न कि उन व्यक्तियों की मातृत्व-पितृत्व की स्वतंत्र आकांक्षा को सीमित करे जो चिकित्सकीय अथवा भावनात्मक बाधाओं से जूझ रहे हैं।