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प्रसंग

परवर्ती (Post-facto) पर्यावरणीय मंजूरी को अपवाद ही रहना चाहिए, इसे सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता।

भूमिका

परवर्ती पर्यावरणीय स्वीकृतियों पर सर्वोच्च न्यायालय का पुनर्विचार पर्यावरण संरक्षण और विनियामक व्यवस्था के बीच जारी तनाव को रेखांकित करता है। “पहले अनुमति, बाद में कार्य” (EC first) के सिद्धांत को दोहराते हुए न्यायालय ने अत्यंत सीमित परिस्थितियों में अपवादस्वरूप नियमितीकरण की गुंजाइश अवश्य रखी है। यह परिवर्तन उन पुराने उल्लंघनों के प्रबंधन की चुनौती को दर्शाता है जो पर्यावरणीय न्यायशास्त्र की निवारक (preventive) प्रकृति को कमजोर किए बिना हल किए जाने चाहिए।

सर्वोच्च न्यायालय का परवर्ती पर्यावरणीय स्वीकृतियों पर निर्णय : पृष्ठभूमि एवं मूल प्रश्न
  • मई 2025 के स्थगन आदेश को पलटते हुए न्यायालय के बहुमत निर्णय ने स्पष्ट किया कि पर्यावरण कानून के दीर्घकालिक दुरुपयोग को ठीक करना जटिल है।
  • बहस का एक प्रमुख पहलू पर्यावरण मंत्रालय की उन अधिसूचनाओं की वैधता से भी संबंधित है, जिनके माध्यम से परवर्ती स्वीकृति को सामान्य बना दिया गया था।
  • पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 तथा EIA अधिसूचनाएँ (1994 एवं 2006) किसी भी बड़े निर्माण अथवा औद्योगिक गतिविधि से पूर्व “पूर्व पर्यावरणीय स्वीकृति” अनिवार्य ठहराती हैं।
पूर्व न्यायिक स्थिति
  • Common Cause (2017) और Alembic Pharmaceuticals (2020) जैसे निर्णयों में न्यायालय ने स्पष्ट कहा था कि जहाँ पूर्व-स्वीकृति अनिवार्य है, वहाँ परवर्ती स्वीकृति स्वीकार्य नहीं है।
  • Vanashakti (मई 2025) निर्णय ने इन मामलों की व्याख्या पूर्णत: परवर्ती EC के निषेध के रूप में की थी।
नया बहुमत दृष्टिकोण
  • न्यायालय ने “पहले EC” के मूलभूत सिद्धांत को अस्वीकार नहीं किया है।
  • उसने अत्यंत सीमित, अपवादस्वरूप परिस्थितियों में नियमितीकरण की गुंजाइश स्वीकार की है—विशेषकर तब, जब परियोजना में भारी निवेश हो चुका हो और दंडात्मक कार्यवाही संभव हो।
  • Alembic तथा D. Swamy जैसे मामलों का संदर्भ लेते हुए न्यायालय ने परवर्ती स्वीकृति को कड़े प्रतिबंधों के भीतर वैध माना है।
  • EC व्यवस्था का मूल ढाँचा अब भी पूर्णत: निवारक (ex ante) ही है।
परवर्ती स्वीकृतियों की सीमाएँ
  • निर्माण पूर्ण होने के बाद दी गई स्वीकृति EIA के उद्देश्य—पर्यावरणीय प्रभावों का पूर्व आकलन—को पूरा नहीं कर सकती।
  • परवर्ती EC केवल दंड, शमन उपायों, अथवा परियोजना को बंद/ध्वस्त करने जैसे विकल्प प्रदान करती है।
  • यह 1990 के दशक से विकसित भारत की निवारक पर्यावरणीय न्यायशास्त्र से मूलतः असंगत है।
भेदभाव संबंधी चिंता
  • Vanashakti निर्णय ने 2017 की अधिसूचना को रद्द कर दिया था, परन्तु पूर्व में जारी परवर्ती स्वीकृतियों को यथावत रहने दिया।
  • बहुमत ने इसे भेदभावपूर्ण कहा, क्योंकि पुराने उल्लंघनकर्ताओं को राहत मिल गई जबकि भविष्य के मामलों में नहीं मिलेगी।
  • तथापि, विनियमन सुधार (regulatory clean-up) के दौरान ऐसी संक्रमणकालीन असमानता सामान्य होती है और यह किसी अवैध प्रक्रिया को पुनर्जीवित करने का आधार नहीं बन सकती।
आगे की राह
  • न्यायालय ने विधिक प्रश्न को पुनः विचार हेतु खोल दिया है, यह संकेत देते हुए कि सीमित परिस्थितियों में परवर्ती नियमितीकरण पूर्णत: अवैध नहीं है।
  • पर्यावरण मंत्रालय को चाहिए कि परवर्ती EC को कड़े अपवादस्वरूप ही अपनाए, क्योंकि वे पर्यावरणीय कानून के निवारक ढाँचे के विपरीत हैं।
  • भेदभाव की चिंताओं को परवर्ती स्वीकृतियों को बढ़ाकर नहीं, बल्कि पूर्व जारी स्वीकृतियों की कठोर समीक्षा द्वारा दूर किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष

यह निर्णय पूर्व पर्यावरणीय स्वीकृति की सर्वोच्चता को बनाए रखते हुए केवल अत्यंत सीमित एवं न्यायोचित मामलों में परवर्ती नियमितीकरण की अनुमति देता है। फिर भी, न्यायालय यह स्पष्ट कर देता है कि ऐसी स्वीकृतियाँ EIA व्यवस्था की निवारक (ex ante) प्रकृति से मूलतः असंगत हैं। दीर्घकालिक पर्यावरणीय शासन के लिए आवश्यक है कि पर्यावरण मंत्रालय परवर्ती स्वीकृतियों को अपवाद की श्रेणी में रखे और पूर्व में दी गई स्वीकृतियों की निगरानी एवं समीक्षा को सुदृढ़ करे।


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