The Hindu Editorial Analysis in Hindi
17 September 2025
न्यायिक प्रयोगवाद बनाम न्याय का अधिकार
(Source – The Hindu, International Edition – Page No. – 8)
Topic : जीएस पेपर II – राजनीति और शासन | जीएस पेपर II – न्यायपालिका | जीएस पेपर IV – नैतिकता
प्रस्तावना
- धारा 498A को महिलाओं को विवाह में होने वाली क्रूरता और दहेज-उत्पीड़न से बचाने हेतु लाया गया था। किंतु इसके दुरुपयोग की चिंताओं ने न्यायपालिका को समय-समय पर सुरक्षा तंत्र जोड़ने को प्रेरित किया।
- हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने Shivangi Bansal बनाम Sahib Bansal (2025) में इलाहाबाद उच्च न्यायालय (Mukesh Bansal बनाम राज्य, 2022) के उस निर्णय को बरकरार रखा जिसमें दो माह का “कूलिंग पीरियड” और फैमिली वेलफेयर कमेटी (FWC) को प्राथमिक जांच की जिम्मेदारी दी गई।
- यह कदम दुरुपयोग रोकने हेतु था, किंतु इससे पीड़िता को त्वरित न्याय का अधिकार कमजोर होता है और आपराधिक न्याय प्रणाली की स्वायत्तता प्रभावित होती है।

मुख्य मुद्दे एवं तर्क
1. जाँच और नियंत्रण का आधार
- धारा 498A महिलाओं की रक्षा हेतु लायी गई थी।
- Lalita Kumari मामला (2014) : FIR से पहले प्रारंभिक जांच का सिद्धांत।
- Arnesh Kumar मामला (2014) : “आवश्यकता सिद्धांत” द्वारा गिरफ्तारी पर नियंत्रण।
- इलाहाबाद HC ने इन्हीं सुरक्षा उपायों को और आगे बढ़ाकर कूलिंग पीरियड अनिवार्य किया।
2. पीड़िता के न्याय के अधिकार पर प्रभाव
- त्वरित FIR और गिरफ्तारी में विलंब → पीड़िता की पीड़ा बढ़ती है।
- FWC को प्रकरण भेजना वैधानिक अधिकार से बाहर है → न्यायिक अतिक्रमण का संकेत।
- यह संविधान प्रदत्त समानता और गरिमा के अधिकार को कमजोर करता है।
3. पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांत
- Rajesh Sharma मामला (2017): SC ने FWC तंत्र का सुझाव दिया।
- Social Action Forum for Manav Adhikar (2018): इसे प्रतिगामी और न्यायालयीय अधिकार क्षेत्र से बाहर मानकर निरस्त किया।
- हालिया निर्णय पूर्ववर्ती असंगतियों को पुनर्जीवित करता है।
4. NCRB आँकड़े और दुरुपयोग बहस
- 498A हमेशा शीर्ष पाँच गिरफ्तारी धाराओं में।
- गिरफ्तारियाँ 1.87 लाख (2015) से घटकर 1.45 लाख (2022) → मौजूदा सुरक्षा उपाय प्रभावी।
- और अधिक प्रतिबंध लगाने से संतुलन पीड़िता के खिलाफ झुकने का खतरा।
नीति-गत खामियाँ
क्षेत्र | खामी |
---|---|
वैधानिक अधिकार | किसी कानून में FWC को आपराधिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं। |
न्याय तक पहुँच | पीड़िता की तत्काल शिकायत निस्तारण की गारंटी कमज़ोर। |
न्यायिक सुसंगति | भिन्न-भिन्न निर्णयों से भ्रम। |
संस्थागत स्वायत्तता | पुलिस व न्यायपालिका की भूमिका FWC से कमजोर। |
आगे की राह
- न्यायिक निर्णय की समीक्षा : SC स्पष्ट करे कि FIR की तत्काल प्रक्रिया बाधित नहीं हो सकती।
- वैधानिक सुधार : किसी भी विलंब तंत्र (FWC जैसे) को केवल संसद द्वारा ही लाया जा सकता है।
- संतुलित दृष्टिकोण : आरोपी की सुरक्षा हेतु अनिवार्य चेकलिस्ट और गिरफ्तारी मानदंड अपनाएँ, न कि सार्वभौमिक कूलिंग पीरियड।
- लैंगिक न्याय ढाँचा : झूठे मामलों के विरुद्ध शीघ्र प्रारंभिक जाँच से संतुलन साधें, पीड़िता के अधिकार से समझौता न करें।
- संवेदनशीलता और प्रशिक्षण : पुलिस, मजिस्ट्रेट और कल्याण अधिकारियों को दुरुपयोग रोकने व पीड़िता को न्याय दिलाने की समान जिम्मेदारी दी जाए।
निष्कर्ष
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इलाहाबाद HC की “कूलिंग पीरियड” व्यवस्था को मान्यता देना न्यायिक प्रयोगवाद का उदाहरण है, जो पीड़िता के त्वरित न्याय के अधिकार और संवैधानिक गारंटी को कमजोर कर सकता है।
दहेज-उत्पीड़न कानून के दुरुपयोग की समस्या वास्तविक है, परंतु समाधान विलंब और अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। सुधार-उन्मुख दृष्टिकोण वही है जो पीड़िता को शीघ्र न्याय दिलाते हुए संरचित सुरक्षा उपाय भी प्रदान करे। टिकाऊ सुधार की जिम्मेदारी संसद की है, न कि न्यायिक प्रयोगों की।