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प्रसंग

यह संपादकीय आधुनिक प्रवासन राजनीति की आलोचना करता है, विशेषतः संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी देशों में, जहाँ कभी आश्रय और अवसर का वादा करने वाली यह व्यवस्था अब भय, पराई-द्वेष (Xenophobia) और वैचारिक संघर्ष का क्षेत्र बन गई है।

क्रिस्टोफर कोलंबस द्वारा “नए विश्व की खोज” के रूपक का प्रयोग करते हुए, प्रो. शेली वालिया यह स्पष्ट करते हैं कि किस प्रकार ऐतिहासिक विस्मृति और नस्लीकृत उपनिवेशवादी आख्यान आज भी पश्चिम की प्रवासन नीतियों को आकार दे रहे हैं, जो शरण चाहने वालों को अमानवीय रूप में प्रस्तुत करते हैं।

लेखक का तर्क है कि आगे बढ़ने के लिए समाजों को उपनिवेशवादी हिंसा को स्वीकार करना, इतिहास को पुनः स्मरण करना, और प्रवास को “आक्रमण” नहीं बल्कि “मानवीय पारस्परिक गमन” के रूप में परिभाषित करना होगा।

1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : कोलंबस से उपनिवेशवाद तक

(a) कोलंबस और “खोज” का मिथक

1492 में क्रिस्टोफर कोलंबस का आगमन अमरीकी महाद्वीपों में आदिवासी सभ्यताओं के विस्थापन, उपनिवेशीकरण और सांस्कृतिक संहार की शुरुआत का प्रतीक था।
पश्चिमी इतिहासलेखन ने कोलंबस की यात्रा को “प्रगति और खोज” का प्रतीक बताया, जबकि मूल निवासियों पर हुए दमन और विनाश को अनदेखा कर दिया।
जैसे कि इरोक्वॉय महासंघ (Iroquois Confederacy) में यूरोपियों के आगमन से बहुत पहले लोकतांत्रिक शासन और सतत सामाजिक व्यवस्था विद्यमान थी, किंतु उपनिवेशवाद ने इन संरचनाओं को मिटा दिया।

(b) “सभ्यता मिशन” की विचारधारा

उपनिवेशवाद ने अपने विस्तार को “असभ्यों को सभ्य बनाने” के नैतिक बहाने से उचित ठहराया।
यह श्वेत वर्चस्ववादी विचार आज की प्रवासन बहसों में भी परिलक्षित होता है, जहाँ वैश्विक दक्षिण (Global South) के प्रवासियों को योगदानकर्ता नहीं बल्कि खतरे के रूप में चित्रित किया जाता है।
इस प्रकार, आधुनिक प्रवासन संकट नया नहीं है — यह उसी नस्ली बहिष्कार की निरंतरता है जिसने उपनिवेश काल को परिभाषित किया था।

2. प्रवासन और ऐतिहासिक विस्मृति की विरासत

(a) अमेरिका और असाधारणता का मिथक

संयुक्त राज्य अमेरिका स्वयं को “प्रवासियों का देश” कहता है, परंतु यह समावेशिता प्रायः यूरोपियों तक सीमित रही है।
ट्रम्प युग के राष्ट्रवाद के दौरान प्रवासन को भय और शत्रुता की दृष्टि से देखा गया — विशेषकर शरणार्थियों, मुसलमानों और लैटिन अमेरिकी प्रवासियों के प्रति।
यह विरोधाभास — यूरोपीय उपनिवेशियों का उत्सव और आधुनिक प्रवासियों की निंदा — अमेरिका के हिंसक मूल इतिहास को भुलाने का द्योतक है।

(b) “जेरोनिमो” और प्रतीकात्मक दुरुपयोग

वालिया इस बात का उदाहरण देते हैं कि किस प्रकार अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मारने के मिशन (ऑपरेशन नेप्च्यून स्पीयर, 2011) के लिए “जेरोनिमो” नामक कोड का प्रयोग किया — जबकि जेरोनिमो स्वयं अमेरिकी उपनिवेशवाद के विरुद्ध लड़ने वाले अपाचे जनजाति के नेता थे।
यह दिखाता है कि साम्राज्यवादी शक्तियाँ कैसे स्वदेशी प्रतिरोध के प्रतीकों का उपयोग अपने आधुनिक सैन्य अभियानों को वैध ठहराने में करती हैं।
अमेरिका स्वयं को प्रवासन और आतंकवाद का “शिकार” बताता है, जबकि वह अपने आक्रमण और विस्थापन के इतिहास को भूल चुका है।

3. बहिष्कार का आधुनिक युग

(a) समकालीन प्रवासन राजनीति

आज के वैश्विक परिप्रेक्ष्य में युद्धग्रस्त अथवा जलवायु-प्रभावित क्षेत्रों (जैसे सीरिया, वेनेज़ुएला, उप-सहारा अफ्रीका) से आने वाले प्रवासियों को पश्चिमी सीमाओं पर अस्वीकृति और अपराधीकरण का सामना करना पड़ता है।
प्रवासन को मानवीय प्रश्न न मानकर “सुरक्षा खतरे” के रूप में देखा जा रहा है।
ट्रम्प युग में यात्रा प्रतिबंध, सीमा दीवारें, और परिवार-विभाजन जैसी नीतियों ने राष्ट्रवाद के नाम पर पराई-द्वेष को संस्थागत रूप दे दिया।

(b) भय और नियंत्रण की वाणी

राजनीतिक नेता प्रवासन-जनित आशंकाओं का उपयोग जनसमर्थन जुटाने के लिए करते हैं।
प्रवासियों को अपराधी, रोजगार-छीनने वाले या सांस्कृतिक आक्रांता बताया जाता है।
इससे समृद्ध देशों में “किला मानसिकता” (Fortress mentality) बनती है — एक भावनात्मक संरचना जो बहिष्कार को सामान्य बनाती है।
लेखक इसे “भय का नव-उपनिवेशी पुनरुत्पादन” कहते हैं, जहाँ इतिहास की हिंसा आधुनिक सुरक्षा के नाम पर पुनः स्थापित की जाती है।

4. नैतिक और दार्शनिक संकट

(a) इतिहासकारों की चुप्पी

मुख्यधारा के इतिहास ने अक्सर दासता, बलात्कार और आदिवासियों व अफ्रीकियों के विनाश जैसी कथाओं को मौन कर दिया।
कोलंबस और अन्य उपनिवेशवादियों को “अग्रदूत” बताकर पश्चिमी शिक्षा-प्रणालियों ने नस्ल और सभ्यता की नैतिक श्रेणीकरण को वैधता दी।
अतः उपनिवेशीय विरासत पर प्रश्न उठाना “अमेरिका-विरोध” नहीं बल्कि “नैतिक स्मरण” का कार्य है।

(b) विस्मृति की मानवीय कीमत

वालिया के अनुसार, भूलना कभी तटस्थ नहीं होता — यह अन्याय को स्थायी बनाता है।
आज के प्रवासियों को वही नस्ली बहिष्कार झेलना पड़ता है जिसने सदियों पहले उपनिवेशित समाजों की मानवता को नकारा था।
प्रवासन निरोधक केंद्र, निर्वासन छापेमारी और शरणार्थी प्रतिबंध — ये सब पुराने उपनिवेशी नियंत्रण-तंत्रों के आधुनिक रूप हैं।
प्रवासन न्याय के लिए संघर्ष वस्तुतः गरिमा और पहचान के लिए चल रहे उपनिवेश-विरोधी आंदोलन का ही विस्तार है।

5. प्रवासन की नैतिक पुनर्परिभाषा की पुकार

(a) वैधानिकता से परे : नैतिक प्रतिपूर्ति की ओर

प्रवासन पर विमर्श को कानूनीता से आगे बढ़ाकर नैतिकता और न्याय के आधार पर खड़ा करना आवश्यक है।
यदि उपनिवेशवाद ने विजय को “खोज” बताया, तो आज की मानवता को प्रवासन को “परस्परता और आदान-प्रदान” के रूप में मनाना चाहिए।
मानव सभ्यता के इतिहास में प्रवासन सदा से अस्तित्व और विकास का आधार रहा है — प्रारंभिक मानव प्रवासों से लेकर आधुनिक शरणार्थी संकट तक।

(b) अतीत से सीख

सच्ची प्रगति के लिए हमें वैश्विक असमानता, युद्ध और जलवायु-विस्थापन के लिए साझा उत्तरदायित्व स्वीकार करना होगा।
समृद्ध राष्ट्रों को यह स्वीकारना होगा कि उनके उपनिवेशी युद्धों, कार्बन उत्सर्जन और संसाधन दोहन ने ही लाखों लोगों को पलायन के लिए विवश किया है।
“प्रवासन पर पुनर्विचार, इतिहास पर पुनर्विचार है — भय के स्थान पर सहानुभूति और बहिष्कार के स्थान पर अपनत्व स्थापित करना।”

निष्कर्ष

संपादकीय का निष्कर्ष यह है कि प्रवासन को “खतरे” नहीं बल्कि “सामूहिक मानवीय अनुभव” के रूप में पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता है।
दीवारें बनाने के बजाय समाजों को स्मृति, न्याय और एकता की संरचना गढ़नी चाहिए, यह स्वीकार करते हुए कि गतिशीलता मानव का स्वाभाविक अधिकार है, कोई विशेषाधिकार नहीं।

कोलंबस के विजय अभियान से लेकर ट्रम्प की सीमा-नीतियों तक फैली ऐतिहासिक विस्मृति को चुनौती देकर ही विश्व एक नई नैतिक भूगोल रचना की दिशा में बढ़ सकता है।

“जो कभी आक्रमणकारी थे, आज सीमाओं के रक्षक हैं; जो कभी पलायनकारी थे, आज अपराधी कहे जाते हैं। इस विडंबना को मिटाने के लिए मानवता को स्मरण करना होगा — और साथ चलना होगा।”


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