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परिप्रेक्ष्य
लोकतांत्रिक देशों में, जिनमें अमेरिका और भारत प्रमुख हैं, विश्वविद्यालय राजनीतिक, वित्तीय और वैचारिक हस्तक्षेप का सामना कर रहे हैं।
इस हस्तक्षेप से उनकी स्वायत्तता कमजोर होती है, ज्ञान सृजन प्रभावित होता है, और असहमति तथा नवाचार दब जाते हैं।


परिचय
विश्वविद्यालयों का कार्य सत्ता की जांच करना है, उसके आगे न झुकना।
परंतु, हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालयों की कर छूट वापस लिए जाने से लेकर भारत में शिक्षा मंत्रालय के तहत अकादमिक संस्थानों का नौकरशाहीकरण तक, स्वतंत्र विचार वाले विश्वविद्यालय का अस्तित्व खतरे में है।
स्वायत्तता, जो अकादमिक संस्थानों की आत्मा थी, अब नियंत्रण और संकट के साथ तुच्छ हो रही है।


संकट के लक्षण

  1. संस्थानों पर राजनीतिक नियंत्रण
    भारत में शिक्षा मंत्रालय और यूजीसी की नौकरशाही ने अकादमिक परिषदों की जगह ले ली है।
    कंप-कुल नियुक्तियों, शोध वित्त, प्रवेश व संस्थागत नीतियों पर नियंत्रण बढ़ा है।
  2. अमेरिका का उदाहरण: हार्वर्ड बनाम राजनीतिक दबाव
    अमेरिकी संसद ने विरोध प्रदर्शन सीमित करने या प्रवेश मानदंड बदलवाने के लिए संघीय कर लाभ वापस लेने की धमकी दी है।
    हार्वर्ड विरोध और विविधता की लड़ाई में फंसा है, जो अकादमिक स्वतंत्रता और राजनीतिक लोकलुभावनता के संघर्ष का प्रतीक है।

खतरे की समझ: स्वायत्तता और उसका रक्तस्राव

  1. स्वायत्तता से सृजनशीलता और दीर्घकालीन सोच संभव होती है
    विश्वविद्यालय केवल ज्ञान वितरित नहीं करते, वे नया ज्ञान पैदा करते हैं, खासकर तकनीकी और सामाजिक बदलावों के दौर में।
    स्वतंत्रता नवाचार को बढ़ावा देती है, नियंत्रण नहीं।
  2. प्रतिबोधगामीता और शासकों की असुरक्षा
    सामाजिक ध्रुवीकरण में, सत्ता में बैठे आलोचनात्मक सोच को खतरा मानते हैं।
    विश्वविद्यालयों को अक्सर बहुमत के विचारों की चुनौती देने के लिए दोषी ठहराया जाता है।

अकादमिक नौकरशाही के खतरे

  1. शिक्षकों की जगह प्रशासक
    उच्च पदों पर अकादमिक दृष्टि के बजाय निष्ठा को तरजीह मिलने लगी है।
    संस्थान कठोर, पदानुक्रमित और दक्षता-केंद्रित हो गए हैं, जो स्वतंत्र अनुसंधान को रोकते हैं।
  2. बाजार-केंद्रित मॉडल
    निजी फंडिंग और कॉर्पोरेट भागीदारी बढ़ने से विश्वविद्यालय लाभ के लक्ष्यों के अधीन हो रहे हैं।
    इससे उनका सामाजिक-विज्ञानिक योगदान कमजोर होता है।

समाज और ज्ञान पर प्रभाव

  1. स्वतंत्र शोध की कमी
    सरकारी या दानी दबाव से आलोचनात्मक शोध सीमित होता है।
    डर के कारण आत्म-सेंसरशिप और औसत दर्जे का शोध बढ़ता है।
  2. ज्ञान तंत्र का पतन
    जब विश्वविद्यालय प्रश्न पूछना छोड़ देते हैं, तो समाज नवाचार व अनुकूलन खो देता है।
    स्वायत्तता कम होने से शिक्षा तंत्र तकनीकी लेकिन उथला रह जाता है, जो प्रभावशाली नेतृत्व व सुधार पैदा नहीं कर पाता।

क्या किया जाना चाहिए

  • अकादमिक स्वतंत्रता लौटाएं और विश्वविद्यालयों को स्वशासी लोकतांत्रिक संस्थाएं बनाएं।
  • वित्तपोषण को राजनीतिक विचारधारा से अलग करें।
  • सार्वजनिक व निजी संस्थानों में पारदर्शी, योग्यता आधारित नेतृत्व को बढ़ावा दें।
  • तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ अंतःविषय व सामाजिक विज्ञान अनुसंधान को प्रोत्साहित करें।
  • विश्वविद्यालयों को लोकतांत्रिक प्रगति के स्तंभ के रूप में देखें, न कि वैचारिक नियंत्रण के उपकरण के रूप में।

  • निष्कर्ष
  • जो समाज अपने विश्वविद्यालयों को मौन करता है, वह अपनी आत्मा को मौन करता है।
  • विश्वविद्यालय स्वायत्तता की लड़ाई केवल शिक्षा की नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों, आलोचनात्मक सोच और बेहतर भविष्य की कल्पना की आज़ादी की रक्षा की लड़ाई है।
  • हमें चुनना होगा कि हमारे विश्वविद्यालय सत्ता के सेवक बने या सत्य के।

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