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जब राज्य स्वास्थ्य सेवा लोगों के घर तक पहुँचाते हैं, तो समुदायों को स्वास्थ्य प्रणालियों के निर्माण में सक्रिय साझेदार के रूप में शामिल करना आवश्यक है।

तमिलनाडु का ‘மக்களை தேடி மருத்துத்துவம் (Makkalai Thedi Maruthuvam)’ योजना — अगस्त 2021 में शुरू — और कर्नाटक की Gruha Arogya योजना — अक्टूबर 2024 में आरम्भ और जून 2025 तक पूरे राज्य में विस्तारित — गैर-संचारी रोगों से पीड़ित व्यक्तियों के घर तक स्वास्थ्य देखभाल पहुँचाने का लक्ष्य रखती हैं। कई अन्य राज्यों में भी इसी तरह के प्रगतिशील कार्यक्रम लागू किए जा रहे हैं। फिर भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न उभरता है: जब प्रणाली नागरिकों तक उनकी जगह पर पहुँचती है, तो नागरिक स्वयं किस हद तक औपचारिक स्तरों पर स्वास्थ्य शासन तक पहुँच, भागीदारी और प्रभाव डालने में सक्षम हैं?

विस्तारित स्वास्थ्य शासन: एक समय जब स्वास्थ्य शासन केवल सरकार संचालित था, अब इसमें नागरिक समाज, पेशेवर निकाय, अस्पताल संघ और ट्रेड यूनियन शामिल हैं; ये औपचारिक और अनौपचारिक सामाजिक प्रक्रियाओं के माध्यम से काम करते हैं जो सत्ता-संबंधी गतिशीलताओं से आकार लेती हैं। सार्वजनिक सहभागिता का महत्व: यह आत्म-सम्मान की पुष्टि, ज्ञानगत अन्याय (epistemic injustice) का मुकाबला और नागरिकों को उनके स्वास्थ्य व स्वास्थ्य-सेवाओं को प्रभावित करने वाले निर्णयों को आकार देने में सक्षम कर लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए अपरिहार्य है। समावेशन का प्रभाव: समावेशी भागीदारी जवाबदेही बढ़ाती है, अभिजात वर्ग के प्रभुत्व को चुनौती देती है और भ्रष्टाचार को घटाती है; इसके अभाव में शासन दबंग और अन्यायपूर्ण हो सकता है। भागीदारी के लाभ: फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं के साथ सहयोग को बढ़ावा, सेवाओं के उपयोग में सुधार, बेहतर स्वास्थ्य परिणाम और समुदायों व प्रदाताओं के बीच पारस्परिक विश्वास का निर्माण। NRHM की पहलें: नेशनल रूरल हेल्थ मिशन (2005) ने ग्राम स्तर पर स्वास्थ्य, स्वच्छता व पोषण समितियों (VHSNCs) और रोगी कल्याण समितियों (Rogi Kalyan Samitis) के माध्यम से सार्वजनिक सहभागिता को संस्थागत किया; इन्हें समावेशी बनाने के लिए अनबद्ध निधियों का समर्थन भी दिया गया। शहरी भागीदारी मंच: महिला आरोग्य समितियाँ, वार्ड समितियाँ और एनजीओ संचालित समितियाँ नागरिक भागीदारी के प्लेटफॉर्म के रूप में कार्य करती हैं। क्रियान्वयन की खामियाँ: कुछ स्थानों पर ये समितियाँ मौजूद ही नहीं हैं; जहाँ हैं, वहाँ उनके रोल अस्पष्ट, बैठकें अनियमित, निधियाँ कम उपयोग की गई, अंतर-क्षेत्रीय समन्वय कमजोर और सामाजिक पदानुक्रम जड़ित हैं।

मानसिकता की समस्या: भारत की स्वास्थ्य प्रणाली की एक बड़ी चुनौती सार्वजनिक सहभागिता के प्रति व्यापक धारणा है, जहाँ समुदायों को अक्सर सक्रिय भागीदार माना नहीं जाता बल्कि निष्क्रिय लाभार्थी की तरह देखा जाता है। लक्षित-प्रवृत्ति (Target-driven) दृष्टिकोण: कार्यक्रमों की सफलता लक्ष्यों/संख्यात्मक मापदण्डों (जैसे कितने “लाभार्थियों” तक पहुँचा गया) के आधार पर नापी जाती है, पर् गुणवत्तापूर्ण क्रियान्वयन या समुदाय के अनुभव पर कम ध्यान दिया जाता है। भाषा मायने रखती है: “लाभार्थी” शब्द नागरिकों को हस्तक्षेप के उद्देश्यों का वस्तु बनाकर दर्शाता है, न कि उनके स्वास्थ्य-हितों के अधिकार-धारक या सह-निर्माता के रूप में। नीति-व्यवहार अंतर: राष्ट्रीय हेल्थ मिशन सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से निचले स्तर की योजना (Programme Implementation Plans) को बढ़ावा देता है, पर सार्थक सहभागिता दुर्लभ बनी हुई है। चिकित्सकीय प्रभुत्व: स्वास्थ्य शासन के अनेक मंच चिकित्सा पेशेवरों द्वारा नेतृत्व किए जाते हैं जो पश्चिमी जैव-चिकित्सीय मॉडल में प्रशिक्षित हैं और अक्सर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रशासन के औपचारिक प्रशिक्षण के बिना होते हैं। नेतृत्व संरचना: पदोन्नति अधिकांशतः वरिष्ठता के आधार पर होती है, जिससे चिकित्सा-केंद्रित और पदानुक्रमित व्यवस्था बनी रहती है जो समुदाय की वास्तविकताओं से कटती है। सहभागिता का विरोध: शोध दर्शाते हैं कि विरोध का कारण अधिक काम का बोझ, जवाबदेही के दबाव, प्रमुख हितों द्वारा नियामक कब्ज़ा और शासन शक्ति में असंतुलन जैसे भय हैं। विकल्पी आवाजें: समावेशी मंचों के अभाव में नागरिक अपने मांगों को लेकर विरोध प्रदर्शन, मीडिया अभियान और कानूनी कदम अपनाते हैं। अविलम्ब आवश्यकता: ये वैकल्पिक कार्रवाइयाँ भागीदारी, आवाज़ और जवाबदेही की गहरी आवश्यकता को दर्शाती हैं।

मानसिकता में बदलाव: शासन के सभी कर्ताओं को यह मूलभूत बदलाव स्वीकार करना होगा कि समुदाय सहभागिता केवल कार्यक्रम लक्ष्य पूरा करने का साधन नहीं बल्कि नागरिकों की agency और गरिमा का सम्मान है। यंत्रवतावाद से परे: लोगों को केवल स्वास्थ्य नतीजों के साधन के रूप में देखना घटिया और उनकी भागीदारी संबंधी अधिकारों का उल्लंघन है। प्रक्रिया का महत्व: परिणामों के साथ-साथ सहभागी प्रक्रियाएँ भी समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। सशक्तिकरण: स्वास्थ्य अधिकारों की जानकारी साझा कर, नागरिक-सचेतना बढ़ाकर, हाशिए पर रह रहे समूहों तक पहुँच कर और नागरिकों को ज्ञान, उपकरण व संसाधन उपलब्ध कराकर समुदायों को सक्रिय रूप से सशक्त बनाना। प्रारम्भिक सहभागिता: सक्रिय स्वास्थ्य-शासन भागीदारी की संस्कृति बनाने के लिए नागरि शिक्षा जल्दी शुरू करनी चाहिए। हाशिएगत समावेशन: निर्णय-प्रक्रियाओं में बहिष्कृत व संवेदनशील समूहों को जानबूझकर शामिल करना आवश्यक है। प्रणाली-संवेदनशीलता: स्वास्थ्य प्रणाली के अन्तर्गत काम करने वालों को यह समझाने के लिए प्रशिक्षण देना चाहिए कि कम स्वास्थ्य-खोजी व्यवहार को केवल जागरूकता की कमी का परिणाम मानना पर्याप्त नहीं है।

काफी संकीर्ण ध्यान देने से व्यक्तियों पर दोषारोपण का रास्ता खुल जाता है, जिससे पहले से ही संवेदनशील समूह और अधिक हाशिए पर चले जाते हैं और स्वास्थ्य असमानताओं के गहरे संरचनात्मक कारण अनदेखे रह जाते हैं। वास्तविक प्रगति तभी संभव है जब स्वास्थ्य पेशेवर समुदायों को निष्क्रिय लाभार्थी न मानकर सक्रिय साझेदार समझें और जड़ों तक पहुंचकर कारणों को मिलकर दूर करने में सहयोग करें। सार्वजनिक सहभागिता मंच आवश्यक हैं, किंतु उन्हें मज़बूत, सतत और वास्तविक प्रभाव डालने वाले बनाना आवश्यक है।


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