The Hindu Editorial Analysis in Hindi
20 May 2025
संकट के मद्देनजर द्विदलीय सहयोग की आवश्यकता
(स्रोत – द हिंदू, राष्ट्रीय संस्करण – पृष्ठ संख्या – 08)
विषय: GS 2: शासन | आंतरिक सुरक्षा | केंद्र-राज्य संबंध | राजनीतिक नैतिकता और राष्ट्रीय हित
परिप्रेक्ष्य
22 अप्रैल, 2024 को कश्मीर के पहलगाम में हुए हालिया आतंकवादी हमले में निर्दोष लोगों की जान जाने से भारत की आतंकवाद निरोधक प्रतिक्रिया और राष्ट्रीय सुरक्षा नीति पर फिर से बहस छिड़ गई है।
यह संपादकीय तर्क देता है कि ऐसी घटनाएँ राजनीतिक कटु प्रतियोगिता का माध्यम नहीं बननी चाहिए, बल्कि राष्ट्रीय एकता, दोनों प्रमुख दलों के साझा रणनीति, और दीर्घकालीन योजना का अवसर होनी चाहिए।

परिचय
राष्ट्रीय त्रासदी के समय राजनीति को विराम देना चाहिए और राज्य नायकों को आगे आना चाहिए।
पहलगाम हमला न केवल आतंकवाद के खतरे की कड़ी یاد दिलाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि एक मजबूत, टिकाऊ और समावेशी सुरक्षा रणनीति तैयार करने के लिए राजनीतिक संकल्प कितना आवश्यक है।
भारत को चुनावी स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्रीय सुरक्षा पर दोनों प्रमुख दलों में सहमति बनानी होगी, जिससे विचारधारात्मक मतभेद पार हो सकें।
समस्या: सुरक्षा का राजनीतिककरण
- संकट के बाद ध्रुवीकरण
पुलवामा (2019) के बाद की तरह, पहलगाम के बाद की जवाबी कार्रवाई भी चुनावी बहसों का शिकार हो सकती है, न कि सूचित रणनीतिक सोच का विषय।
राजनीतिक दल अक्सर आरोप-प्रत्यारोप और अवसरवादी आलोचना करते हैं, जिससे जनता का विश्वास कमजोर होता है।
- चुनावी लाभ के लिए आतंकवाद का हथियार बनाना
सुरक्षा मामलों को राजनीतिकरण से राष्ट्रीय एकता टूटती है और दीर्घकालीन स्पष्टता कमजोर होती है।
इससे भारत की संस्थागत प्रतिक्रिया कमजोर पड़ती है और खुफिया, कूटनीति तथा सीमा सुरक्षा में सुधार पर ध्यान कम होता है।
इतिहास से शिक्षा: जब एकता ने बढ़त ली
- कारगिल युद्ध (1999)
राजनीतिक मतभेदों के बावजूद, सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी यूपीए एकजुट होकर देश की रक्षा में साथ खड़े हुए और सेना की प्रशंसा की।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वाजपेयी सरकार का खुलकर समर्थन किया, जो एक दुर्लभ लेकिन महत्वपूर्ण एकता का क्षण था।
- आतंकवाद के बाद अमेरिका और यूरोप
9/11, 7/7 (लंदन), और क्राइस्टचर्च (2019) हमलों के बाद पश्चिमी लोकतंत्रों ने पार्टी सीमाओं को पार कर साझा सुरक्षा को प्राथमिकता दी।
आगे का मार्ग: सुरक्षा एक साझा सिद्धांत
- राष्ट्रीय सुरक्षा गैर-राजनीतिक होनी चाहिए
सुरक्षा योजना को समन्वित निर्णय-प्रक्रिया की जरूरत है, न कि चुनावी दबाव से प्रेरित आकस्मिक कदम।
भारत को एक संहिताबद्ध सुरक्षा सिद्धांत बनाना चाहिए—जिसमें आतंकवाद निरोध, साइबर सुरक्षा, और रणनीतिक कूटनीति शामिल हों—चाहे राजनीतिक परिस्थितियाँ कोई भी हों।
- रचनात्मक द्विपक्षीय सहयोग के उदाहरण
शास्त्री-भाजपई के कश्मीर पर संवाद, या नरसिंह राव का विदेश नीति पर भाजपा के साथ समन्वय दिखाते हैं कि पार-पार्टी सहयोग संभव और अधिक प्रभावी होता है।
दांव पर है: राष्ट्रीय एकता और वैश्विक विश्वसनीयता
- कूटनीति और आंतरिक एकजुटता पर प्रभाव
विभाजक भाषण भारत की जिम्मेदार और लोकतांत्रिक महाशक्ति की वैश्विक छवि को कमजोर करता है।
यह विरोधियों को प्रोत्साहन देता है और जब आतंकवाद विरोधी रणनीतियों पर राजनीतिक मंचों में सवाल उठते हैं तो जनता में भ्रम पैदा करता है।
- संकट प्रतिक्रिया में जनता का विश्वास पुनर्निर्माण
भारत को यह साबित करना होगा कि सुरक्षा और मानव जीवन चुनावी लाभ से महत्वपूर्ण हैं।
एक पारदर्शी, एकजुट राजनीतिक प्रतिक्रिया आतंक के बाद सार्वजनिक धैर्य और राष्ट्रीय मनोबल को बढ़ाती है।
निष्कर्ष
आतंकवाद पूरे भारतीय राष्ट्र के लिए चुनौती है, न कि किसी एक राजनीतिक दल के लिए।
जब हमारे राजनेता राष्ट्रीय हित के रक्षक बनेंगे—मतदान के प्रतियोगी नहीं—तब ही भारत एक समेकित, दीर्घकालीन सुरक्षा सिद्धांत तैयार कर सकेगा।
भारत को केवल बड़े शब्दों की नहीं, बल्कि लोकतंत्र को विभाजित करने वालों से बचाने के लिए सहयोगी, द्विपक्षीय कार्रवाई की जरूरत है।