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परिचय

  • जून 2025 में IIP वृद्धि 10 महीनों के निचले स्तर 1.5% पर आ गई।
  • मुख्य कारण: खनन और बिजली उत्पादन में भारी गिरावट।
  • जलवायु परिवर्तन की अनियमित मानसून पैटर्न की वजह से खनन क्षेत्र प्रभावित हुआ।
  • भारत की आर्थिक रिपोर्टिंग में अभी तक जलवायु जोखिम एकीकृत नहीं हुआ है, जो अब आवश्यक हो गया है।

उद्योग में मंदी: जून 2025 की मुख्य बातें

  • खनन उत्पादन में गिरावट: –8.7% (पिछले वर्ष +10.3%)।
  • बिजली उत्पादन में कमी: –2.6% (पिछले वर्ष +8.6%)।
  • अनियमित मानसून के कारण ओडिशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल के खनन क्षेत्र जलमग्न हो गए।
  • बिजली वितरण अवसंरचना भी प्रभावित हुई।

औद्योगिक क्षेत्रों की मिली-जुली स्थिति

  • कुल औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि 3.9% रही, जो पिछले वर्ष की तुलना में थोड़ा बेहतर है।
  • वृद्धि के मुख्य कारण: पूंजीगत वस्तुएं (+3.5%), मध्यवर्ती वस्तुएं (+5.5%), और अवसंरचना वस्तुएं (+7.2%)।
  • यह दर्शाता है कि सरकारी अवसंरचना निवेश उद्योग बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।
  • खनन और बिजली मिलकर IIP के 22.3% हिस्से को संरक्षित करते हैं।

जलवायु परिवर्तन और आर्थिक रिपोर्टिंग

  • भारत में अभी भी आर्थिक मंदी को जलवायु कारणों से जोड़ने में हिचक है।
  • सरकारी रिपोर्टों में अक्सर हाई बेस प्रभाव, आपूर्ति श्रृंखला की दिक्कतें, और मांग की कमजोरी को जिम्मेदार ठहराया जाता है।
  • वैश्विक स्तर पर यूरोपीय सेंट्रल बैंक और बैंक ऑफ इंग्लैंड जैसे संस्थान जलवायु जोखिम को अपनी आर्थिक रिपोर्टिंग में शामिल कर रहे हैं।
  • भारतीय संस्थान जैसे MoSPI और RBI इस दिशा में धीमे हैं।
  • RBI ने वित्तीय स्थिरता रिपोर्टों में जलवायु जोखिम को शामिल किया है, लेकिन उत्पादन संबंधी संकेतकों में अभी यह शामिल नहीं है।

आगे का रास्ता

  • भारत को IIP और GDP जैसे मैक्रोइकॉनॉमिक संकेतकों में जलवायु जोखिम का समावेश करना चाहिए।
  • इससे नीति निर्माण, पर्यावरणीय संकटों के प्रति मजबूती और आर्थिक डेटा की पारदर्शिता बढ़ेगी।
  • जलवायु जागरूक आर्थिक रिपोर्टिंग की प्रणालीगत बदलाव बेहद आवश्यक और लंबित है।

निष्कर्ष

  • जलवायु घटनाओं के आर्थिक प्रभाव को स्वीकार कर भारत को अपनी आर्थिक रिपोर्टिंग में बदलाव लाना होगा।
  • जलवायु जोखिम को नजरअंदाज करने से नीति निर्माण और जनता की समझ दोनों प्रभावित होती हैं।
  • वैश्विक संस्थाओं की तरह भारत को भी जलवायु-संबंधित आर्थिक विश्लेषण में प्रगति करनी होगी ताकि जलवायु अस्थिरता के बावजूद सतत और मजबूत विकास सुनिश्चित किया जा सके।

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