The Hindu Editorial Analysis in Hindi
16 August 2025
उग्रवाद की राजनीति, नक्सलवाद का पतन
(Source – The Hindu, International Edition – Page No. – 8)
Topic : भारत में नक्सलवाद: राजनीति, उग्रवाद और पतन
प्रसंग
भारत ने विश्व की सबसे लंबी चलने वाली आंतरिक उग्रवादियों में से एक – वामपंथी उग्रवाद (एलडब्ल्यूई)/नक्सलवाद – का अनुभव किया है। यह कभी मध्य और पूर्वी राज्यों में गंभीर आंतरिक सुरक्षा संकट था। सरकारी प्रयासों, सुरक्षा सुधारों और विकासात्मक पहलों के कारण हाल के वर्षों में आंदोलन काफी कमजोर हुआ है, लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थ और भविष्य की दिशा अब भी विवादास्पद हैं।

परिचय
आतंकवाद के बारे में भविष्यवाणियाँ अक्सर अनिश्चित होती हैं, लेकिन भारत में एक बात स्पष्ट हो गई है – नक्सलवाद की क्रांतिकारी ऊर्जा समय के साथ कम हो गई है। 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से भूमि-सुधार और जमींदारों के विरुद्ध किसानों के विद्रोह के रूप में शुरू हुआ यह आंदोलन बाद में भारत का सबसे व्यापक उग्रवादी आंदोलन बन गया। किंतु आज यह आंदोलन राज्य की नीतिगत प्रतिक्रिया, नेतृत्व के विखंडन और विचारधारा की कमजोरी के कारण काफी कमजोर हो गया है।
मुख्य मुद्दे और विश्लेषण
- उग्रवाद की बदलती प्रकृति
- आरंभ में भूमि-अन्याय और कृषक शोषण पर आधारित आंदोलन बाद में हिंसात्मक और विखंडित हो गया।
- यह सीपीआई (माओवादी) जैसे क्षेत्रीय संगठनों में संगठित हुआ और जनजातीय एवं वन क्षेत्रों में हिंसा से खुद को बनाए रखा।
- समय के साथ ऑनलाइन अभियान और डिजिटल प्रोपेगेंडा ने भौतिक लामबंदी की जगह ले ली।
- सरकारी प्रतिक्रिया
- आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्यों में सुरक्षा बलों की कार्रवाई, विकास परियोजनाओं और लक्षित अभियानों से इसका दायरा सिमट गया।
- एकीकृत कार्य योजना (IAP) और सुरक्षा आधुनिकीकरण ने जवाबी अभियान को बल दिया।
- अर्बन नक्सलवाद की कथा ने विमर्श को बदला—हिंसात्मक विद्रोह से शहरों में कथित बौद्धिक सहयोगियों तक।
- विचारधारा का पतन
- चारु मजूमदार और माओवादी विचारधारा से प्रेरित प्रारंभिक क्रांतिकारी जोश भारत के युवाओं को अब आकर्षित नहीं करता।
- अनेक गुट बने लेकिन उनमें केंद्रीय समन्वय का अभाव है।
- बड़ी संख्या में कैडरों ने आत्मसमर्पण किया; तथाकथित “लाल गलियारा” लगभग ध्वस्त हो गया।
- स्थायी चुनौतियाँ
- बस्तर, गढ़चिरौली और कुछ वन क्षेत्रों में शेष हिंसा बनी हुई है।
- नक्सलवाद अब भी भूमि-विहीनता, जनजातीय शोषण और विकास की कमी से जुड़ा है—यानी यह केवल सुरक्षा का नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक मुद्दा है।
- नागरिक असहमति को “अर्बन नक्सलवाद” कहकर लेबल करना लोकतांत्रिक सक्रियता और आतंकवाद के बीच की रेखा धुंधली कर सकता है।
प्रभाव
- सुरक्षा पर: हिंसक घटनाओं और मौतों में उल्लेखनीय कमी।
- राजनीति पर: नक्सलवाद अब चुनावी राजनीति को प्रभावित नहीं करता, लेकिन राज्य-दमन बनाम क्रांति की बहस का प्रतीक बना हुआ है।
- समाज पर: आदिवासी क्षेत्रों में विकास की खाई बनी हुई है; यदि इसे न भरा गया तो असंतोष नए रूप में लौट सकता है।
- विचारधारा पर: सशस्त्र संघर्ष से शहरी बौद्धिक विमर्श तक का परिवर्तन पूर्ण समाप्ति नहीं बल्कि रूपांतरण को दर्शाता है।
निष्कर्ष
नक्सलवाद का पतन केवल सैन्य दमन की कहानी नहीं बल्कि वैचारिक क्षरण की कहानी भी है, जो तेजी से वैश्वीकृत हो रहे भारत में हुआ। फिर भी, आदिवासी पिछड़ेपन की स्थिरता यह संकेत देती है कि यदि शासन-प्रशासन परिणाम नहीं दे सका तो उग्रवाद नए रूपों में फिर उभर सकता है।
भारत के सामने चुनौती यही है कि वैध असहमति का सम्मान हो और कट्टरपंथी हिंसा को सख्ती से रोका जाए। आज के संदर्भ में संदेश स्पष्ट है—विकास और लोकतंत्र, केवल सुरक्षा अभियानों से कहीं अधिक प्रभावी प्रतिविष हैं।