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प्रस्तावना

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मीडिया रिपोर्ट के आधार पर सैन्य अकादमियों से चोट या विकलांगता के कारण बाहर किए गए कैडेटों का मामला स्वतः संज्ञान में लिया। यह कदम लंबे समय से चली आ रही एक गंभीर अन्यायपूर्ण स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करता है। राष्ट्र की सेवा हेतु आगे आए इन युवाओं की विशेष आवश्यकताओं को राज्य द्वारा उपेक्षित करना न केवल अन्याय है बल्कि संवैधानिक जिम्मेदारी की भी अवहेलना है। इस संदर्भ में नौकरशाही के लिए लचीलापन और सहानुभूति अत्यंत आवश्यक हैं।

क्षतिपूर्ति मामलों में लचीलापन और सहानुभूति की अनिवार्यता

  • मौजूदा परिपाटी में टकराव स्पष्ट है—
    • नौकरशाही का कठोर नियम-आधारित दृष्टिकोण
    • बनाम
    • सैन्य सेवा में लगी चोटों और विकलांगताओं के आजीवन परिणाम
  • समस्या यह है कि नियम हर मानवीय परिस्थिति का पूर्वानुमान नहीं कर सकते।
  • समाधान यह है कि लचीलापन (flexibility) और सहानुभूति (empathy) प्रशासनिक संस्कृति के केंद्र में हों।

उदाहरण: नियम बनाम मानवीय परिस्थिति

1. एक होने वाली माँ का मामला

  • एक IAF पायलट की दुर्घटना में मृत्यु हुई, पत्नी गर्भवती थीं।
  • नियमों के अनुसार—
    • बच्चे सहित विधवा → अधिक पेंशन।
    • बिना बच्चे की विधवा → कम पेंशन।
    • गर्भवती विधवा → कोई प्रावधान नहीं।
  • अधिकारियों ने इसे मान्य मुद्दा माना पर कहा: “नियम तो नियम हैं।”
  • अंततः मामला उठाया गया और वर्षों बाद नियम बदले गए।
  • प्रश्न: क्यों इसे विशेष मामला मानना पड़ा? यह तो सामान्य नियम होना चाहिए था।

2. जब राज्यपाल ने हस्तक्षेप किया

  • सियाचिन में IAF चीता हेलिकॉप्टर दुर्घटना, एक पायलट की मृत्यु, दूसरा गंभीर चोटों से ग्रस्त।
  • सेवा समाप्ति का खतरा था, परिवार संकट में होता।
  • छत्तीसगढ़ के राज्यपाल (शेखर दत्त, पूर्व रक्षा सचिव व अधिकारी) ने हस्तक्षेप कर रक्षा मंत्री से सेवा विस्तार दिलाया।
  • बाद में मनोहर पर्रिकर ने भी एक और विस्तार दिया।
  • प्रश्न: क्या यह समर्थन तभी संभव था क्योंकि राज्यपाल स्वयं पूर्व सैनिक थे? क्या यह व्यक्तिगत परिस्थितियों पर निर्भर होना चाहिए या संस्थागत नीति पर?

बदलने योग्य मानसिकता

  • मीडिया रिपोर्ट और सर्वोच्च न्यायालय की संज्ञान-प्रक्रिया के केवल 10 दिनों के भीतर सरकार ने घायल कैडेटों को भूतपूर्व सैनिकों के समान चिकित्सा लाभ प्रदान किए।
  • वर्षों से रिपोर्टें आती रहीं, परंतु नौकरशाही उदासीन बनी रही।
  • न्यायपालिका को इस हृदयहीन और असंवेदनशील रवैये के लिए नौकरशाही को उत्तरदायी ठहराना चाहिए।
  • इतिहास से सीख: जब नौकरशाह बर्फीले क्षेत्रों में उपकरण खरीद में टालमटोल कर रहे थे, तब तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने उन्हें सियाचिन भेजकर सैनिकों की वास्तविक परिस्थितियों का अनुभव कराया। इसके बाद निर्णय शीघ्र हुआ।

निष्कर्ष

नौकरशाही को आज चाणक्य की उस शाश्वत चेतावनी को स्मरण करना चाहिए, जिसमें कहा गया था—
“जिस दिन सैनिक को अपना वैध अधिकार पाने के लिए माँग करनी पड़ेगी, उस दिन राज्य अपनी नैतिक सत्ता खो देगा।”
इस दृष्टि से, सैनिकों और उनके परिवारों की विशेष परिस्थितियों में संवेदनशीलता, सहानुभूति और लचीलेपन का परिचय देना केवल प्रशासनिक दक्षता नहीं बल्कि राज्य की नैतिक जिम्मेदारी है।


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