Achieve your IAS dreams with The Core IAS – Your Gateway to Success in Civil Services

प्रसंग

भारत, जो कभी फ़िलिस्तीन की स्वतंत्रता का मुखर समर्थक रहा था, हाल के वर्षों में अधिक सतर्क, संयमित और तटस्थ रुख अपनाता दिखाई देता है। संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर फ़िलिस्तीन की आवाज़ उठाने वाले भारत ने अब इज़राइल की कार्रवाइयों के खिलाफ स्पष्ट रुख लेने से परहेज़ करना शुरू कर दिया है और रणनीतिक चुप्पी साध ली है।

प्रमुख मुद्दे और तर्क

भारत की ऐतिहासिक भूमिका

  • भारत फ़िलिस्तीन को मान्यता देने वाला शुरुआती गैर-अरब देशों में से था और उसने वैश्विक मंचों पर उसके पक्ष में सक्रिय रूप से आवाज़ उठाई।
  • नेहरू जैसे नेताओं ने उपनिवेशवाद और रंगभेद का विरोध किया और फ़िलिस्तीन के संघर्ष को भारत की आज़ादी की लड़ाई से जोड़ा।
  • 1970–80 के दशक में भारत की विदेश नीति स्पष्ट रूप से फ़िलिस्तीनी आत्मनिर्णय के पक्ष में थी और उसने इज़राइल से दूरी बनाए रखी।

समकालीन नीति में बदलाव

  • 1990 के दशक से, विशेषकर 1992 में भारत-इज़राइल के पूर्ण राजनयिक संबंधों के बाद, भारत ने धीरे-धीरे संतुलित रुख अपनाना शुरू किया।
  • हाल की घटनाओं, जैसे ग़ाज़ा और वेस्ट बैंक में हिंसा, पर भारत की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत मद्धम रही, जबकि वैश्विक स्तर पर तीव्र आलोचना हो रही थी।
  • संयुक्त राष्ट्र में भारत का कई प्रस्तावों से दूर रहना इस बात का संकेत है कि वह इज़राइल और अमेरिका को नाराज़ करने से बचना चाहता है।

नैतिक और मानवाधिकार आयाम

  • भारत की चुप्पी उसके उस ऐतिहासिक चरित्र को कमजोर करती है जिसमें वह न्याय, गरिमा और मानवाधिकारों का रक्षक रहा है।
  • हज़ारों फ़िलिस्तीनी नागरिकों की मौत के बावजूद भारत की चुप्पी उसके मूल्यों और मौजूदा यथार्थ राजनीति के बीच विरोधाभास को दर्शाती है।
  • यह और भी विडंबनापूर्ण है क्योंकि भारत अन्य वैश्विक मानवाधिकार मुद्दों पर सक्रियता दिखाता रहा है।

रणनीतिक गणना

  • भारत की यह चुप्पी आंशिक रूप से इज़राइल के साथ उसके सुरक्षा, रक्षा और प्रौद्योगिकी संबंधों से जुड़ी है।
  • भारत-अमेरिका-इज़राइल की नई त्रिकोणीय सामरिक साझेदारी ने भी नई दिल्ली की डिप्लोमेसी को प्रभावित किया है।
  • आर्थिक और रणनीतिक हितों को भारत ने फ़िलिस्तीन पर अपने नैतिक नेतृत्व से ऊपर रखा है।

नीतिगत अंतराल

  • विदेश नीति – ऐतिहासिक नैतिक रुख और मौजूदा यथार्थ राजनीति में असंगति।
  • मानवाधिकार – न्याय की रक्षा में कमजोरी और मानवीय संकटों पर चयनात्मक चुप्पी।
  • संयुक्त राष्ट्र डिप्लोमेसी – बार-बार अनुपस्थिति ने वैश्विक दक्षिण में भारत की विश्वसनीयता कम की।
  • सामरिक साझेदारी – इज़राइल/अमेरिका संबंधों को मानवीय मूल्यों से ऊपर प्राथमिकता।

आगे की राह

  • ऐतिहासिक प्रतिबद्धताओं की पुनर्पुष्टि – भारत को फिर से न्याय और अधिकारों का रक्षक बनकर उभरना होगा।
  • रणनीति और मूल्यों में संतुलन – इज़राइल से सामरिक संबंध बनाए रखें, पर फ़िलिस्तीन को मानवीय मदद और समर्थन देते रहें।
  • नैतिक कूटनीति का पुनर्जीवन – भारत वैश्विक दक्षिण की आवाज़ बनकर पश्चिम एशिया में शांति पहल और मानवीय सहायता का नेतृत्व कर सकता है।
  • घरेलू-वैश्विक जुड़ाव – भारत के फ़िलिस्तीन समर्थन को उसकी अपनी आज़ादी की लड़ाई और न्याय की परंपरा से जोड़कर प्रस्तुत करना।

निष्कर्ष

फ़िलिस्तीन पर भारत की दूरी मूल्य-आधारित कूटनीति से लेन-देन वाली यथार्थ राजनीति की ओर झुकाव को दर्शाती है। यद्यपि इज़राइल और अमेरिका के साथ संबंधों के सामरिक पहलू समझने योग्य हैं, पर मानवीय संकटों पर चुप रहना भारत की नैतिक आवाज़ को कमजोर करता है। अपनी विरासत का सम्मान करने के लिए भारत को फिर से न्याय, गरिमा और मानवाधिकारों का वैश्विक प्रवक्ता बनना होगा।


Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *