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जहाज़ निर्माण शिपयार्ड उन्नयन की दिशा में

(स्रोत – द हिंदू, अंतर्राष्ट्रीय संस्करण – पृष्ठ 8)
विषय : जीएस 3 – अवसंरचना

संदर्भ

प्रोत्साहन योजनाएँ तभी सफल होंगी जब वे जहाज़ मालिकों को दीर्घकालिक उपयोग अनुबंधों (long-term ship utilization contracts) का भरोसा दिलाएँ।


परिचय

भारत सरकार का ₹69,725 करोड़ का शिपबिल्डिंग पैकेज देश के समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित करने की कोशिश है। इसका लक्ष्य है –

  • मर्चेंट शिप क्षमता को 4.5 मिलियन ग्रॉस टन तक बढ़ाना।
  • शिपयार्ड का उन्नयन और सहायक उद्योग क्लस्टरों का विकास।
  • जहाज़ मालिकों को वित्तीय सहयोग प्रदान करना।

यह योजना उस कमी को दूर करने का प्रयास है जो भारत के शिपबिल्डिंग क्षेत्र में लंबे समय से बनी हुई है, जबकि रक्षा जहाज़ निर्माण में कुछ सफलता मिली है।


नया शिपबिल्डिंग पैकेज : ₹69,725 करोड़

  • सरकार ने 2015 की समाप्त हो रही योजना के स्थान पर ₹69,725 करोड़ का नया पैकेज घोषित किया है।
  • पिछले 10 वर्षों में रक्षा ऑर्डरों ने कुछ शिपयार्डों को व्यस्त रखा, परंतु सिर्फ आधा दर्जन छोटे मर्चेंट शिप ही भारत में बने।
  • भारत की बड़े जहाज़ बनाने की क्षमता बहुत सीमित है। नई योजना का लक्ष्य है – क्षमता को 4.5 मिलियन ग्रॉस टन तक बढ़ाना।

मुख्य उद्देश्य :

  1. शिपयार्ड को आधुनिक तकनीक और प्रबंधन पद्धतियों से उन्नत करना।
  2. नए शिपयार्ड क्लस्टर स्थापित करना, जिनमें सहायक उद्योग भी हों।
  3. जहाज़ मालिकों को वित्तपोषण सहयोग प्रदान करना।

लेकिन चुनौती यह है कि 2015 का पैकेज लगभग असफल रहा। ऐसे में इस बार सफलता को लेकर प्रश्न उठते हैं।


वैश्विक शिपबिल्डिंग प्रथाएँ

दक्षिण कोरिया, जापान और चीन जैसे देश अत्याधुनिक तकनीक अपनाते हैं :

  • बड़े जहाज़ी हिस्सों की प्रीफेब्रिकेशन ड्राई डॉक्स के बाहर।
  • 1000 टन या उससे अधिक क्षमता वाले क्रेन से हिस्सों को ड्राई डॉक्स में लाना।
  • ड्राई डॉक्स को असेंबली लाइन की तरह इस्तेमाल करना, जिससे निर्माण का समय घटे।

वैश्विक औसत :

  • 3–4 महीने में कील से जलावतरण (keel-to-waterborne)।
  • 1 वर्ष में बड़े जहाज़ का समुद्री परीक्षण तक तैयार हो जाना।

भारतीय शिपयार्ड की चुनौतियाँ

  • अधिकांश शिपयार्डों में लंबाई, क्रेन क्षमता और प्रीफेब्रिकेशन की जगह की कमी।
  • सहायक उद्योग (ancillaries) कमजोर, जिससे अवरोध उत्पन्न होते हैं।
  • एक जहाज़ बनाने में भारत में 2–3 वर्ष लग जाते हैं।
  • पूंजी पर देर से रिटर्न मिलने से जहाज़ मालिक नए जहाज़ ऑर्डर करने से हिचकिचाते हैं

नया पैकेज इन कमियों को दूर करने पर केंद्रित है।


भारत के लिए रणनीतिक कदम

भारत को पहले छोटे जहाज़ (500 ग्रॉस टन और उससे अधिक) से शुरुआत करनी चाहिए।

  • इंफ्रास्ट्रक्चर दर्जा मिलने से वित्तीय लागत कम होती है, पर इसका लाभ अभी केवल बड़े जहाज़ों तक सीमित है।
  • दीर्घकालिक प्रोत्साहनों में शामिल होना चाहिए –
    1. जहाज़ों के लिए निश्चित ऑफटेक अनुबंध
    2. लॉन्ग-टर्म चार्टर और शिपिंग एग्रीमेंट (जैसे कोयला व कच्चे तेल के आयात के लिए)।

छूटा अवसर :

  • काकीनाडा और कोच्चि की ग्रीन फ्यूल परियोजनाओं को ग्रीन शिप निर्माण और लॉन्ग-टर्म ऑफटेक अनुबंधों से नहीं जोड़ा गया।

मुख्य निष्कर्ष

  • शिपयार्ड उन्नयन निर्माण में देरी और लागत वृद्धि को कम करने के लिए आवश्यक।
  • केवल अवसंरचना स्तर की रियायतें पर्याप्त नहीं हैं; जहाज़ मालिकों को मांग की दीर्घकालिक गारंटी चाहिए।
  • भारत को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए आधुनिक शिपयार्ड + प्रशिक्षित मानव संसाधन + गारंटीड ऑफटेक का एकीकृत मॉडल जरूरी।

निष्कर्ष

भारत के शिपबिल्डिंग पैकेज की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि हम आधुनिक शिपयार्ड, उन्नत तकनीक और कुशल मानव संसाधन तैयार कर पाते हैं या नहीं।
पर उतना ही महत्वपूर्ण है – लॉन्ग-टर्म ऑफटेक एग्रीमेंट और ग्रीन फ्यूल परियोजनाओं के साथ एकीकरण
अगर ये कदम नहीं उठाए गए, तो देरी, लागत वृद्धि और निवेशकों का अविश्वास बना रहेगा और भारत वैश्विक मर्चेंट शिप बाजार में प्रतिस्पर्धा करने के अपने लक्ष्य से दूर रह जाएगा।


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