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बेरोज़गारी: बिहार की स्थायी चुनौती

बेरोज़गारी बिहार में लम्बे समय से एक राजनैतिक और आर्थिक रूप से जटिल समस्या रही है, जो जनचर्चा और मतदाता भावनाओं दोनों पर हावी रहती है। 2015 के बाद से हुए लोकनीति-सीएसडीएस (Lokniti-CSDS) सर्वेक्षणों और चुनावोपरांत अध्ययनों में लगातार यह पाया गया है कि “रोज़गार और आजीविका” चुनावी मुद्दों में सबसे प्रमुख रहा है। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि और कुछ नीतिगत हस्तक्षेपों के बावजूद बिहार में रोज़गार की स्थिति अब भी चिंताजनक बनी हुई है, जिससे यह आगामी राज्य चुनावों में निर्णायक कारक बन गई है।

यह सम्पादकीय आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) 2023–24 के आँकड़ों के आधार पर बिहार की रोज़गार स्थिति का विश्लेषण करता है और अन्य राज्यों से उसकी तुलना करते हुए दीर्घकालिक बेरोज़गारी के ढांचागत कारणों पर प्रकाश डालता है।

1. बिहार की बेरोज़गारी की गतिशीलता को समझना

(क) प्रमुख सूचकांक: WPR, LFPR, और UR

रोज़गार की वास्तविक स्थिति का आकलन तीन परस्पर संबंधित सूचकांकों से किया जाता है:

  • कार्यशील जनसंख्या अनुपात (WPR) – कुल जनसंख्या में काम करने वाले लोगों का प्रतिशत।
  • श्रम बल भागीदारी दर (LFPR) – कार्यशील आयु वर्ग की वह हिस्सेदारी जो या तो कार्यरत है या सक्रिय रूप से काम की तलाश में है।
  • बेरोज़गारी दर (UR) – श्रम बल का वह भाग जो बेरोज़गार है परन्तु कार्य की तलाश में है।

अप्रैल–जून 2025 में बिहार का WPR 46.2%, LFPR 51.6%, और UR 10.4% रहा।
यह आँकड़े दर्शाते हैं कि कार्यशील आयु की लगभग आधी आबादी आर्थिक रूप से निष्क्रिय है — यह नौकरी के अवसरों की कमी और श्रम बाजार से हताश होकर बाहर हो जाने (“डिस्करेज्ड वर्कर इफ़ेक्ट”) दोनों को प्रतिबिंबित करता है।

2. तुलनात्मक विश्लेषण: बिहार बनाम अन्य राज्य

झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे अन्य अल्प-आय वाले राज्यों की तुलना में बिहार का WPR और LFPR सबसे नीचे है।

  • बिहार की महिला WPR: 30.8% (देश में सबसे कम में से एक)
  • राष्ट्रीय औसत महिला WPR: 49.3%
  • बिहार में केवल 5.7% कार्यरत लोग नियमित वेतनभोगी नौकरियों में हैं।
  • 67.3% लोग असंगठित या अस्थायी श्रम (खेतिहर, निर्माण या स्व-रोज़गार) में लगे हैं।

यह आँकड़े बेरोज़गारी से अधिक अल्प-रोज़गारी और असंगठितता की गहरी समस्या को दर्शाते हैं — जहाँ युवा जनसंख्या तो बड़ी है, पर औपचारिक रोज़गार के अवसर सीमित हैं।

3. स्थायी बेरोज़गारी के ढांचागत कारण

(क) शिक्षा और कौशल की कमी

साक्षरता दर 2011 के 61.8% से बढ़कर 2024 में 71.9% हो गई है, परंतु कौशल विकास अब भी अत्यंत कमजोर है।
तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा में पिछड़ापन युवाओं को पढ़ा-लिखा पर अप्रशिक्षित बना देता है, जिससे रोज़गारयोग्यता घट जाती है।

(ख) प्रवासन पर निर्भरता

स्थानीय रोजगार के सीमित अवसरों के कारण प्रवासन बिहार का सामान्य समाधान बन गया है।
हर वर्ष लगभग 30 लाख मज़दूर निर्माण, विनिर्माण और असंगठित क्षेत्रों में कार्य हेतु अन्य राज्यों में पलायन करते हैं।
इससे प्रेषण आधारित खपत तो बढ़ती है, परन्तु राज्य के भीतर कोई संरचनात्मक औद्योगिक विकास नहीं होता।

(ग) औद्योगीकरण का अभाव

बिहार का भारत के विनिर्माण उत्पादन में योगदान नगण्य है।
भूमि, आधारभूत ढाँचे और निवेश की कमी ने औद्योगिक विविधीकरण को रोक दिया है।

4. भ्रामक बेरोज़गारी मापदंड

केवल बेरोज़गारी दर (UR) पर ध्यान केंद्रित करने से स्थिति अधिक अनुकूल प्रतीत होती है, क्योंकि इसमें वे लोग शामिल नहीं होते जिन्होंने काम ढूँढ़ना ही छोड़ दिया है।
बिहार में महिलाएँ और युवा बड़ी संख्या में इस श्रेणी में आते हैं।

PLFS (अप्रैल–जून 2025) के अनुसार, हर 100 कार्यशील आयु के व्यक्तियों में केवल 30 कार्यरत हैं जबकि 70 बेरोज़गार या निष्क्रिय हैं — यह उस राज्य के लिए अत्यंत चिंताजनक है जो “जनसांख्यिकीय लाभांश” का लाभ उठाना चाहता है।

5. सरकारी प्रतिक्रिया और नीतिगत सीमाएँ

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार ने शिक्षा सुधार और महिला सशक्तिकरण पर ध्यान दिया है, परन्तु बेरोज़गारी की मूल संरचना अब भी जस की तस है।
मनरेगा (MGNREGA) जैसे कार्यक्रम अस्थायी राहत तो देते हैं पर दीर्घकालिक, कौशल आधारित रोज़गार उत्पन्न नहीं करते।

औद्योगिक क्लस्टर, एमएसएमई नीति और औपचारिक नौकरी नेटवर्क का अभाव समस्या को बढ़ाता है। सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरी सृजन भी वर्षों से ठप पड़ा है।

6. आगे का रास्ता: बहुआयामी रणनीति

(क) शिक्षा–रोज़गार संबंध पुनर्स्थापित करें

  • निजी उद्योगों के सहयोग से व्यावसायिक प्रशिक्षण व कौशल संरेखण कार्यक्रम शुरू करें।
  • बिहार की संसाधन-आधारित संभावनाओं (कृषि-प्रसंस्करण, वस्त्र, निर्माण आदि) के अनुसार आईटीआई, पॉलीटेक्निक और औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों का आधुनिकीकरण करें।

(ख) स्थानीय औद्योगिक विकास को बढ़ावा दें

  • अर्धशहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगिक गलियारे और क्लस्टर आधारित उद्यमिता ज़ोन स्थापित किए जाएँ।
  • विनिर्माण, लॉजिस्टिक्स और अक्षय ऊर्जा में सार्वजनिक–निजी भागीदारी (PPP) को प्रोत्साहित किया जाए।

(ग) लैंगिक समावेशन

  • सूक्ष्म ऋण योजनाओं और महिला स्व-रोज़गार कार्यक्रमों का विस्तार करें।
  • कार्यस्थल लचीलापन और बाल देखभाल सहायता जैसे प्रोत्साहनों से महिलाओं की भागीदारी बढ़ाएँ।

(घ) संस्थागत और सांख्यिकीय सुधार

  • असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों के लिए डेटा संग्रह में सुधार करें।
  • PLFS के वार्षिक और त्रैमासिक रुझानों के आधार पर जिला-स्तरीय रोजगार मिशन तैयार करें।

निष्कर्ष

बिहार में बेरोज़गारी केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनैतिक और विकासात्मक संकट है।
राज्य की युवा आबादी, ढांचागत ठहराव और कौशल की कमी — तीनों मिलकर एक चुनौतीपूर्ण परिदृश्य बनाते हैं।

इससे निपटने के लिए अल्पकालिक उपाय (लोक कार्यों का विस्तार, कौशल प्रशिक्षण) और दीर्घकालिक रणनीतियाँ (औद्योगीकरण, शिक्षा सुधार, श्रम बाजार का आधुनिकीकरण) — दोनों आवश्यक हैं।

यदि बिहार ने स्पष्ट रोज़गार दृष्टि नहीं अपनाई, तो वह प्रवासन, असंगठितता और अविकास के उसी चक्र में फँसा रहेगा, जो उसकी विकास क्षमता और सामाजिक स्थिरता दोनों को कमजोर करेगा।


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