The Hindu Editorial Analysis in Hindi
17 October 2025
भारत के कार्बन बाज़ार के लिए सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करें
(Source – The Hindu, International Edition – Page No. – 8)
Topic : जीएस पेपर III – पर्यावरण: जलवायु परिवर्तन, कार्बन बाजार, पर्यावरणीय शासन, सतत विकास
संदर्भ (Context)
भारत जब अपने कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS) की शुरुआत कर रहा है, तब यह संपादकीय चेतावनी देता है कि भारत को उन शोषणकारी वैश्विक कार्बन बाज़ार मॉडलों की नकल नहीं करनी चाहिए, जिन्होंने स्थानीय समुदायों और किसानों को हाशिये पर धकेला है। लेखकों का तर्क है कि भले ही कार्बन मार्केट्स उत्सर्जन घटाने और टिकाऊ प्रथाओं को प्रोत्साहित कर सकते हैं, लेकिन इन्हें समानता, सहमति और लाभ-साझेदारी के सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए।
मुख्य प्रश्न यह है कि भारत कार्बन ट्रेडिंग का विस्तार कैसे करे ताकि सामाजिक असमानता या पर्यावरणीय अन्याय न बढ़े।

1. वैश्विक परिप्रेक्ष्य: कार्बन मार्केट्स और जलवायु न्याय
a) कार्बन क्रेडिट – अवधारणा
कार्बन क्रेडिट किसी ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन में कमी या उसे हटाने का प्रमाण होता है, जिसे CO₂-समकक्ष इकाइयों में मापा जाता है।
ये क्रेडिट निम्न माध्यमों से उत्पन्न किए जा सकते हैं:
- नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाएँ: सौर, पवन आदि
- प्राकृतिक समाधान: पुनर्वनीकरण, कृषि-वनीकरण, बायोचार
- स्वच्छ औद्योगिक परिवर्तन: निम्न-उत्सर्जन ईंधन, कार्बन कैप्चर तकनीक
इन क्रेडिट्स से कंपनियाँ और देश अपने उत्सर्जन की भरपाई अन्यत्र कार्बन घटाने वाली परियोजनाओं में निवेश करके कर सकते हैं — यही वैश्विक कार्बन बाजारों का आधार है, जैसे कि क्योटो प्रोटोकॉल (Clean Development Mechanism) और पेरिस समझौता (Article 6)।
b) दोधारी तलवार
वैश्विक स्तर पर कार्बन ट्रेडिंग ने अरबों डॉलर का उद्योग बनाया है, लेकिन साथ ही यह:
- कॉरपोरेट ग्रीनवॉशिंग का साधन बना, और
- भूमि हड़पने और आदिवासी समुदायों के बहिष्कार का कारण भी बना, विशेषकर अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में।
यह विरोधाभास — पर्यावरणीय लक्ष्यों और सामाजिक समानता के बीच — अब भारत के उभरते कार्बन बाजार विमर्श का केंद्र है।
2. भारत की कार्बन मार्केट दृष्टि और जोखिम
a) भारतीय दृष्टिकोण
भारत की कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS) का उद्देश्य है:
- ऊर्जा, कृषि, विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में उत्सर्जन में कमी को बढ़ावा देना,
- क्षेत्र-विशिष्ट उत्सर्जन तीव्रता मानक तय करना, और
- एक राष्ट्रीय रजिस्ट्री और ट्रेडिंग प्लेटफ़ॉर्म स्थापित करना।
हालाँकि, यह दृष्टिकोण तकनीकी और प्रक्रियात्मक नियमों पर केंद्रित है, समुदाय की भागीदारी पर नहीं।
b) उभरती कमजोरियाँ
- किसान और स्थानीय समुदाय परियोजना डिज़ाइन व लाभ वितरण से बाहर हो सकते हैं।
- कार्बन प्रोजेक्ट्स “आधुनिक बागान व्यवस्था” में बदल सकते हैं, जो औपनिवेशिक भूमि नियंत्रण का पुनरावर्तन होगा।
- स्पष्ट लाभ-साझेदारी, सहमति, और पारदर्शिता के अभाव में विशिष्ट वर्गों का कब्ज़ा (elite capture) संभव है।
इसलिए भारत को वैश्विक दक्षिण के अनुभवों से सीखते हुए सामाजिक सुरक्षा तंत्र सुनिश्चित करना चाहिए।
3. केन्या का अनुभव: एक चेतावनी
a) उत्तरी केन्या कार्बन परियोजना
- 2012 में नॉर्दर्न रेंजेलैंड्स ट्रस्ट (NRT) द्वारा शुरू की गई, “समुदाय-नेतृत्व” का दावा किया गया।
- 1.9 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में फैली और 30 वर्षों में 50 मिलियन टन CO₂ अवशोषित करने का लक्ष्य रखा।
- बाद में सहमति और लाभ-साझेदारी के उल्लंघन पर कानूनी जांच शुरू हुई।
b) आरोप और सीख
- स्थानीय समुदायों ने मुक्त, पूर्व और सूचित सहमति (FPIC) के अभाव का आरोप लगाया।
- भूमि हड़पने, चराई अधिकारों में कमी और पशुपालकों के बहिष्कार की रिपोर्टें आईं।
- 2023 में Verra (कार्बन मानक संस्था) ने क्रेडिट जारी करना निलंबित कर दिया।
➡️ सीख: यदि कार्बन परियोजनाएँ समुदाय की सहमति, न्यायसंगत वितरण और पारदर्शिता पर आधारित न हों, तो वे असमानता को गहरा सकती हैं।
4. भारत के कार्बन बाजार में सुरक्षा उपायों की आवश्यकता
a) कानूनी और संस्थागत कमियाँ
भारतीय प्रारूप में स्पष्ट दिशानिर्देशों का अभाव है, जैसे:
- डेवलपर्स और समुदायों के बीच लाभ-साझेदारी के मानक,
- मुक्त, पूर्व और सूचित सहमति (FPIC) का ढांचा,
- कार्बन राजस्व उपयोग की पारदर्शी निगरानी।
b) संवेदनशील क्षेत्र
(i) वनीकरण और वन परियोजनाएँ
- पारंपरिक उपयोगकर्ताओं (आदिवासी, पशुपालक) के विस्थापन का खतरा।
- सामुदायिक वन भूमि और चराई क्षेत्रों तक पहुँच सीमित हो सकती है।
(ii) कृषि आधारित कार्बन परियोजनाएँ
- छोटे किसानों को लाभ से वंचित किया जा सकता है।
- गरीब किसानों को शोषणकारी अनुबंधों में बाँधा जा सकता है।
(iii) नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाएँ
- भूमि और लाभ निजी हाथों में केंद्रित हो सकते हैं।
- समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित नहीं होगी।
5. आगे का रास्ता: समानतामूलक कार्बन बाजार की रचना
a) मूल सिद्धांत
समुदाय स्वामित्व और FPIC:
हर परियोजना में स्थानीय भागीदारी और सहमति का ढांचा होना चाहिए।
लाभ-साझेदारी ढांचा:
कार्बन क्रेडिट से होने वाली आय का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित हो।
संस्थागत सुरक्षा:
- स्वतंत्र निगरानी निकायों द्वारा अनुपालन की समीक्षा।
- डेवलपर्स के लिए पारदर्शी प्रकटीकरण मानक।
b) नीति और कानूनी सुधार
- स्थानीय और आदिवासी समुदायों के अधिकारों को औपचारिक मान्यता देने के लिए राष्ट्रीय लाभ-साझेदारी कानून लाया जाए।
- वनाधिकार अधिनियम (FRA) और पेसा (PESA) जैसे कानूनों से कार्बन बाजार को जोड़ा जाए।
- विकेंद्रीकृत शासन के माध्यम से निगरानी और अनुकूलन नियमन को सशक्त किया जाए।
c) अतिनियमन से बचाव
लेखक चेतावनी देते हैं कि अत्यधिक कानूनी जटिलता भागीदारी को हतोत्साहित कर सकती है।
भारत को एक संतुलित, पारदर्शी और समुदाय-केंद्रित ढांचा बनाना चाहिए जो विकास को बढ़ाए, न कि शोषण को।
6. निष्कर्ष
भारत का कार्बन बाजार न्यायपूर्ण जलवायु कार्रवाई का वैश्विक मॉडल बन सकता है — बशर्ते यह सामाजिक न्याय और आर्थिक दक्षता को साथ लेकर चले।
यदि सुरक्षा उपाय नहीं अपनाए गए, तो यह “हरित लेबल” के तहत औपनिवेशिक संसाधन दोहन की तर्ज़ को दोहरा सकता है।
भारत को कार्बन गिनती से समुदाय सशक्तिकरण की दिशा में बढ़ना होगा — ताकि कार्बन राजस्व केवल उत्सर्जन की भरपाई न करे, बल्कि कमजोर वर्गों का उत्थान भी करे।
“एक न्यायसंगत कार्बन बाजार वही है जहाँ स्थिरता उन्हीं के लाभ और सहमति से आगे बढ़े जो पर्यावरण की रक्षा में अग्रणी हैं।”