Achieve your IAS dreams with The Core IAS – Your Gateway to Success in Civil Services

संदर्भ

यह संपादकीय इस बात की पड़ताल करता है कि कैसे अमेरिकी “बिग टेक” कंपनियाँ — जैसे गूगल, मेटा आदि — भारत के औषधि और जादुई उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम, 1954 (DMRA) का बार-बार उल्लंघन कर रही हैं। ये कंपनियाँ अपने प्लेटफ़ॉर्म पर अप्रमाणित दवाओं, स्वास्थ्य उपचारों तथा वेलनेस उत्पादों के विज्ञापन प्रसारित करती हैं, विशेषकर उन आयुर्वेदिक और हर्बल दवाओं के जो चिकित्सकीय प्रभाव का दावा करती हैं।

स्पष्ट वैधानिक निषेध के बावजूद, इन कंपनियों का भारत में संचालन भारतीय कानून के प्रति उपेक्षा दर्शाता है। वे नियामकीय खामियों का लाभ उठाकर स्वयं को “मध्यस्थ (intermediary)” घोषित करती हैं ताकि “प्रकाशक (publisher)” के रूप में जवाबदेही से बच सकें।

यह लेख दर्शाता है कि इस प्रकार की दण्डमुक्ति न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य और चिकित्सकीय नैतिकता को कमजोर करती है, बल्कि भारत की डिजिटल संप्रभुता और कानूनी प्रवर्तन क्षमता को भी चुनौती देती है।

1. पृष्ठभूमि : औषधि विज्ञापन का कानूनी ढाँचा

(a) ऐतिहासिक संदर्भ

भ्रामक औषधि विज्ञापनों को नियंत्रित करने का मुद्दा सन् 1927 में तब उठा जब सर हारून जाफ़र ने इसे ब्रिटिश शासन के अधीन काउंसिल ऑफ़ स्टेट में उठाया था।

DMRA अधिनियम, 1954 के अंतर्गत किसी भी दवा के उस विज्ञापन पर प्रतिबंध है जो अनुसूची J में सूचीबद्ध रोगों — जैसे मधुमेह, कैंसर, यौन विकार आदि — को रोकने या ठीक करने का दावा करे, जब तक कि उसकी प्रभावशीलता चिकित्सकीय रूप से सिद्ध न हो।

इस अधिनियम का उद्देश्य जनता को भ्रामक स्वास्थ्य दावों और असत्यापित “चमत्कारी उपचारों” से बचाना था।

(b) अधिनियम के मुख्य प्रावधान

  • धारा 3 – औषधियों व उपचारों के भ्रामक विज्ञापन पर प्रतिबंध।
  • धारा 4 – निर्दिष्ट रोगों से संबंधित विज्ञापनों पर नियंत्रण।
  • धारा 7 – दंडात्मक प्रावधान (जुर्माना और कारावास)।

यह कानून प्रकाशकों और वितरकों पर भी लागू होता है — अर्थात् बिग टेक कंपनियाँ इन विज्ञापनों की मेजबानी करके कानूनी रूप से उत्तरदायी हैं।

2. डिजिटल परिवर्तन : नए विज्ञापनदाता के रूप में बिग टेक

(a) इंटरनेट ने विज्ञापन की प्रकृति बदली

सर्च इंजन, सोशल मीडिया और ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म के उदय के साथ विज्ञापन की दुनिया प्रिंट व प्रसारण माध्यमों से डिजिटल मार्केटिंग की ओर मुड़ी।
इस बदलाव ने बिग टेक कंपनियों को विज्ञापन-प्रौद्योगिकी (ad-tech) पारिस्थितिकी पर नियंत्रण प्रदान किया, परंतु सरकारों के लिए नियमन की प्रक्रिया कठिन बना दी।

(b) ऑनलाइन स्वास्थ्य विज्ञापनों की समस्या

“डायबिटीज़ रिवर्सल”, “एंटी-कैंसर हर्बल क्योर”, “इम्यूनिटी बूस्टर इलीक्सिर” जैसे दावे भारत में इन प्लेटफ़ॉर्मों पर खुलेआम प्रसारित होते हैं।

ये कंपनियाँ एल्गोरिथ्मिक विज्ञापन-स्थापन के माध्यम से लाभ कमाती हैं और व्यवहारगत आँकड़ों के आधार पर संवेदनशील उपभोक्ताओं को लक्षित करती हैं।

ऐसी सामग्री DMRA और उपभोक्ता संरक्षण कानूनों — दोनों का उल्लंघन करती है।
भारत में ड्रग्स कंट्रोलर जनरल (DCGI) और स्वास्थ्य मंत्रालय के पास सीमित डिजिटल प्रवर्तन क्षमता है, जिससे एक बड़ा अनुपालन अंतर (compliance gap) उत्पन्न होता है।

3. बिग टेक को छूट क्यों मिलती है

(a) भारतीय कानून के प्रति अवमानना

लेखकों का मत है कि बिग टेक की अनुपालनहीनता का एक कारण कॉरपोरेट अहंकार है — यह धारणा कि भारतीय कानून पश्चिमी मानकों से निम्न हैं।

इन्हीं स्वास्थ्य विज्ञापनों को अमेरिका में FDA अधिनियम के तहत प्रतिबंधित किया गया है, और वहाँ ये कंपनियाँ सख़्त प्रवर्तन के कारण अनुपालन करती हैं।
परंतु भारत में नियामकीय संस्थाओं की क्षमता और समन्वय सीमित है।

(b) “मध्यस्थ” का तर्क

बिग टेक कंपनियाँ प्रायः सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 79 का हवाला देकर कहती हैं कि वे केवल “मध्यस्थ” हैं, “प्रकाशक” नहीं।
लेकिन जब प्लेटफ़ॉर्म विज्ञापनों को सक्रिय रूप से लक्षित करते हैं और उनका अनुकूलन करते हैं, तो वे संपादकीय नियंत्रण में हस्तक्षेप करते हैं — जिससे यह तर्क अमान्य हो जाता है।

भारतीय न्यायालयों ने पहले भी ऐसे बचावों को अस्वीकार किया है — जैसे 2009 में PCPNDT अधिनियम से संबंधित जनहित याचिका में, जहाँ गूगल को लिंग-निर्धारण सेवाओं के विज्ञापनों पर दोषी पाया गया था।
फिर भी प्रवर्तन कमजोर है, जिससे लाभ-प्रधान उदासीनता और प्रणालीगत अनुपालनहीनता जारी रहती है।

4. नैतिकता और शासन संबंधी चिंताएँ

(a) सार्वजनिक स्वास्थ्य की उपेक्षा

अनियंत्रित डिजिटल विज्ञापन निम्नलिखित को कमजोर करते हैं —

  • चिकित्सकीय नैतिकता, क्योंकि वे अवैज्ञानिक उपचारों को सामान्य बनाते हैं।
  • उपभोक्ता सुरक्षा, क्योंकि अपरीक्षित उत्पादों को बढ़ावा देते हैं।
  • शासन में विश्वास, क्योंकि वे भारत की नियामकीय अक्षमता को उजागर करते हैं।

(b) संस्थागत उदासीनता

DCGI और इलेक्ट्रॉनिक्स व सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) अलग-अलग काम करते हैं, और आपसी समन्वय बेहद कमजोर है।
ऐसे उल्लंघनों पर दायर एक जनहित याचिका (PIL) नौ वर्षों तक लंबित रही — जो नौकरशाही जड़ता और राजनीतिक अनिच्छा को दर्शाती है।
इसी बीच करोड़ों भारतीय प्रतिदिन भ्रामक स्वास्थ्य उपचारों के संपर्क में आते हैं।

5. व्यापक प्रश्न : संप्रभुता और जवाबदेही

(a) अमेरिकी कॉरपोरेट दण्डमुक्ति

बिग टेक का यह रवैया डिजिटल उपनिवेशवाद (Digital Colonialism) का प्रतीक है — जहाँ पश्चिमी कंपनियाँ अपने देशों में तो कानून का पालन करती हैं, पर विकासशील देशों में नहीं।
यह प्रवर्तन विषमता (enforcement asymmetry) उन्हें लाभ कमाने और सख़्त निगरानी से बचने का अवसर देती है।

(b) भारत की नीतिगत कमज़ोरियाँ

भारत का नियामकीय दृष्टिकोण प्रतिक्रियाशील (reactive) है, पूर्वानुमेय (anticipatory) नहीं।
DMRA (1954), IT अधिनियम (2000) और उपभोक्ता संरक्षण नियम (2020) एल्गोरिथ्मिक विज्ञापन मॉडलों के अनुरूप विकसित नहीं हो सके हैं।
डिजिटल प्रतिस्पर्धा कानून (Digital Competition Law) और अंतर-क्षेत्रीय नियामक की अनुपस्थिति ने प्रवर्तन को विखंडित कर दिया है।

लेखकों के अनुसार, यह एक “कानूनी आधुनिकता का संकट (crisis of legal modernity)” है — जहाँ कानून तो मौजूद हैं, पर उनकी प्रवर्तन क्षमता बिग टेक की तकनीकी पहुँच से पीछे रह गई है।

6. आगे की राह : भारत के नियामकीय दाँत मज़बूत करना

(a) नीतिगत सुधार

  • आपराधिक प्रवर्तन: स्वास्थ्य मंत्रालय को DMRA उल्लंघनों पर टेक कंपनियों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे शुरू करने चाहिए।
  • डिजिटल स्वास्थ्य नियामक: DMRA के ढाँचे के अंतर्गत एक डिजिटल स्वास्थ्य विज्ञापन प्राधिकरण गठित किया जाए।
  • मध्यस्थ जवाबदेही: IT अधिनियम की धारा 79 में संशोधन कर प्लेटफ़ॉर्मों को अवैध सामग्री के एल्गोरिथ्मिक प्रचार के लिए उत्तरदायी बनाया जाए।
  • उपभोक्ता जागरूकता: झूठे स्वास्थ्य दावों पर देशव्यापी डिजिटल साक्षरता अभियान चलाया जाए।

(b) कूटनीतिक व संरचनात्मक कदम

  • भारत–अमेरिका डिजिटल व्यापार संवाद में परस्पर अनुपालन (reciprocal compliance) की धाराएँ जोड़ी जाएँ।
  • RBI, MeitY और स्वास्थ्य मंत्रालय के बीच स्वास्थ्य-संबंधी फिनटेक और एड-टेक की निगरानी हेतु समन्वय बढ़ाया जाए।

निष्कर्ष

संपादकीय का निष्कर्ष यह है कि भारत को बिग टेक के इन उल्लंघनों को सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के रूप में देखना चाहिए, न कि केवल अनुपालन-संबंधी मुद्दा मानकर।

कानूनी प्रवर्तन, नैतिक उत्तरदायित्व, और प्रौद्योगिकीय पर्यवेक्षण के संयोजन से भारत डिजिटल स्वास्थ्य-संबंधी मिथ्या सूचना पर अपनी नियामकीय संप्रभुता पुनः प्राप्त कर सकता है।

“जो डिजिटल दिग्गज अमेरिका के कानूनों का पालन करते हैं, वे भारत में भारतीय कानूनों की अवहेलना नहीं कर सकते — अनुपालन भौगोलिक स्थिति का नहीं, बल्कि सिद्धांत का विषय होना चाहिए।”


Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *