The Hindu Editorial Analysis in Hindi
14 November 2025
डोनाल्ड ट्रम्प ने वैश्विक परमाणु व्यवस्था को हिला दिया
(Source – The Hindu, International Edition – Page No. – 8)
विषय: सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र II: अंतर्राष्ट्रीय संबंध – वैश्विक सुरक्षा संरचना | सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र III: आंतरिक सुरक्षा – परमाणु प्रौद्योगिकी और अप्रसार
संदर्भ
30 अक्टूबर 2025 को पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह घोषणा की कि अमेरिका “रूस और चीन के समान स्तर” पर परमाणु परीक्षण दोबारा प्रारम्भ करने की योजना बना रहा है। यदि यह कदम लागू होता है तो यह व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि (CTBT) तथा परमाणु अप्रसार संधि (NPT) के तहत निर्मित वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था के नाजुक संतुलन को गम्भीर रूप से प्रभावित कर सकता है।

पृष्ठभूमि: परिवर्तित होती वैश्विक परमाणु रणनीति
वैश्विक परमाणु शस्त्र-संचय 1970 के दशक के लगभग 65,000 वारहेड से घटकर आज लगभग 12,500 रह गया है, परन्तु आधुनिकीकरण की प्रक्रिया निरंतर जारी है।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य—अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन—अब भी प्रमुख परमाणु शक्तियाँ हैं; जबकि भारत, पाकिस्तान, इज़राइल और उत्तर कोरिया जैसे देश NPT रूपरेखा से बाहर रहते हुए अपने परमाणु भंडार का विस्तार कर चुके हैं।
1990 के दशक से परमाणु परीक्षण पर अनौपचारिक प्रतिबंध (moratorium) लागू होने के बावजूद, हाइपरसोनिक हथियारों, स्वायत्त प्रणालियों और कम-विस्फोटक (low-yield) हथियारों का विकास वैश्विक सामरिक समीकरणों को पुनर्परिभाषित कर रहा है।
ट्रंप की घोषणा और उसके निहितार्थ
ट्रंप ने ऊर्जा विभाग और रक्षा विभाग को यह निर्देश दिया कि वे “अमेरिका के परमाणु हथियारों का समान आधार पर परीक्षण” करने की तैयारी करें।
यह कदम शीत युद्ध–कालीन प्रतिस्पर्धा को पुनर्जीवित कर सकता है, जिससे नए परमाणु शस्त्र-वृद्धि चक्र (arms race) की शुरुआत और सामरिक स्थिरता (strategic stability) में गिरावट संभावित है।
रूस द्वारा हाल ही में CTBT की पुष्टि (ratification) वापस लेना और चीन का तीव्र आधुनिकीकरण कार्यक्रम तनाव को और बढ़ाता है।
CTBT के लिए उत्पन्न संकट
1. सार्वभौमिक पुष्टि का अभाव
1996 में स्वीकृत होने के बावजूद CTBT आज तक लागू नहीं हो पाया है, क्योंकि अमेरिका, चीन, भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया, ईरान, मिस्र और इज़राइल जैसे महत्वपूर्ण देशों ने इसकी पुष्टि नहीं की है।
2. रणनीतिक अस्पष्टता
कई देश उप-आलोचनात्मक (subcritical) परीक्षण और कंप्यूटर-आधारित सिमुलेशन करते हैं, जो संधि की “परमाणु परीक्षण” परिभाषा से बाहर माने जाते हैं।
3. मानकों का क्षरण
ट्रंप की यह घोषणा दशकों से चले आ रहे स्वैच्छिक परीक्षण–निषेध को पलट देती है और परीक्षण न करने वाले देशों की नैतिक स्थिति को कमजोर करती है।
वैश्विक सुरक्षा पर संभावित प्रभाव
1. नई शस्त्र प्रतिस्पर्धा
रूस और चीन अपने परीक्षण बढ़ा सकते हैं, जिससे भारत और पाकिस्तान पर भी प्रतिद्वंद्वी दबाव बढ़ सकता है।
2. NPT की वैधता में गिरावट
यदि परीक्षण पुनः शुरू होते हैं, तो NPT के प्रति वैश्विक विश्वास कमज़ोर पड़ सकता है, जिससे गैर-परमाणु देशों में भी हथियार विकसित करने की प्रवृत्ति बढ़ सकती है।
3. तकनीकी दुष्चक्र
अमेरिका द्वारा द्वैध-उपयोग (dual-use) प्रणालियों—जैसे हाइपरसोनिक मिसाइलें, कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित स्वायत्त प्रणालियाँ तथा कम-विस्फोटक वारहेड—का अनुसंधान, भविष्य में परमाणु युद्ध को “सामान्यीकृत” करने की दिशा में खतरनाक संकेत दे सकता है।
भारत का दृष्टिकोण
भारत, जो “पहले उपयोग न करने” (No First Use) की नीति का पालन करता है और 1998 से परीक्षण-निषेध का स्वैच्छिक पालन कर रहा है, इस नए वैश्विक माहौल में सामरिक दबावों का सामना कर सकता है।
CTBT पर वैश्विक सहमति का टूटना एशियाई सुरक्षा समीकरणों को अस्थिर कर सकता है, जिससे भारत की चीन और पाकिस्तान के प्रति प्रतिरोध क्षमता (deterrence posture) प्रभावित हो सकती है।
मार्ग आगे का
1. कूटनीति का पुनरोद्धार
निर्वस्त्रीकरण सम्मेलन (Conference on Disarmament) तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के माध्यम से हथियार नियंत्रण समझौतों पर विश्वास बहाल करने का प्रयास आवश्यक है।
2. सत्यापन तंत्र की मजबूती
अंतरराष्ट्रीय निगरानी प्रणाली (IMS) और डेटा-साझाकरण तंत्र को सुदृढ़ किया जाना चाहिए।
3. भारत की भूमिका
भारत जिम्मेदार परमाणु संयम का समर्थक बनकर “वैश्विक प्रथम-उपयोग-न-करने की प्रतिज्ञा” (Global No-First-Use Pledge) को आगे बढ़ा सकता है।
निष्कर्ष
परमाणु परीक्षणों को पुनः आरम्भ करने का ट्रंप का निर्णय शीत युद्ध के बाद से परमाणु हथियार नियंत्रण के लिए सबसे गंभीर झटका हो सकता है। यह दशकों में निर्मित वैश्विक सहयोग और परीक्षण-निषेध के मानकों को कमजोर कर सकता है।
“यदि प्रतिरोध (deterrence) को उकसावे (provocation) के रूप में परिभाषित किया जाने लगे, तो विश्व शीघ्र ही परमाणु विनाश की छाया में लौट सकता है।”