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प्रसंग

हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक मामले में नोटिस जारी किया, जिसमें एक महिला पर पॉक्सो अधिनियम, 2012 की धारा 3 के तहत एक नाबालिग बालक के साथ ‘संबेदनशील (पैठकारी) यौन आक्रमण’ करने का आरोप था।
इससे एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठा—क्या पॉक्सो अधिनियम लैंगिक-विशिष्ट है या लैंगिक-तटस्थ?

संपादकीय का तर्क है कि पॉक्सो अधिनियम की भाषा और विधायी मंशा—दोनों—स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं कि यह लैंगिक-तटस्थ (Gender-Neutral) है, और यह पुरुष तथा महिला दोनों प्रकार के अपराधियों और पीड़ितों को सम्मिलित करता है।

1. विधि-पाठ लैंगिक-तटस्थता का समर्थन करता है
  • धारा 3 “पैठकारी यौन आक्रमण” की परिभाषा देते समय अपराधी को केवल पुरुष तक सीमित नहीं करती।
  • विधि में ‘he’ सर्वनाम का उपयोग इसे पुरुष-विशेष नहीं बनाता, क्योंकि सामान्य धाराएँ अधिनियम, 1897 की धारा 13(1) के अनुसार,
    पुल्लिंग में स्त्रीलिंग भी सम्मिलित माना जाता है, जब तक कि विधि में विपरीत आशय न हो।
  • अतः विधि-पाठ का शाब्दिक एवं उद्देश्यपरक (purposive) पठन स्पष्ट करता है कि यह कानून किसी भी लिंग के अपराधी पर लागू होता है।
  • इसके अतिरिक्त, यह धारा उन परिस्थितियों को भी समाहित करती है जहाँ कोई वयस्क बालक से स्वयं पर अथवा किसी तीसरे व्यक्ति पर यौन कृत्य करवाता है, जिससे इसकी लैंगिक-तटस्थ व्याख्या और सुदृढ़ होती है।

2. यह विधायी मंशा का सुनियोजित निर्णय है
  • आधिकारिक स्रोतों से पुष्टि होती है कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय (MoWCD) ने इस अधिनियम को जानबूझकर लैंगिक-तटस्थ बनाने का संकल्प किया था।
  • 2019 में जब पॉक्सो संशोधन विधेयक संसद में प्रस्तुत हुआ, तो उद्देश्य और कारणों का वक्तव्य स्पष्ट रूप से इस मंशा को व्यक्त करता है।
  • यह भाषा भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 63 (पूर्व में आईपीसी की धारा 375) से भिन्न है, जो बलात्कार को स्पष्ट रूप से लैंगिक-विशिष्ट अपराध बनाती है—यह दर्शाता है कि संसद जब चाहे, अपराध को लिंग-विशेष बना सकती है।
  • अतः पॉक्सो में लिंग-विशेष शब्दावली का अभाव सजग विधायी चयन है, न कि चूक।

3. कानून का उद्देश्य और नैतिक आधार
  • पॉक्सो अधिनियम का मूल उद्देश्य सभी बच्चों (18 वर्ष से कम आयु) को यौन अपराधों से संरक्षण प्रदान करना है—लिंग की परवाह किए बिना।
  • इसे लैंगिक-तटस्थ रूप से पढ़ना सर्वोच्च न्यायालय के साक्षी बनाम भारत संघ (2004) के निर्णय से भी मेल खाता है, जिसमें माना गया कि बाल यौन शोषण केवल योनि-संभोग तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक रूप से विभिन्न प्रकार के दुराचार को सम्मिलित करता है।
  • अनुसंधान और पीड़ितों की गवाही दर्शाती है कि महिलाएँ भी नाबालिगों के विरुद्ध यौन अपराध कर सकती हैं, और ऐसे अनुभव विधि के दायरे से बाहर नहीं रहने चाहिए।
  • यदि इस अधिनियम को केवल पुरुष अपराधियों तक सीमित कर दिया जाए, तो यह न्याय प्रक्रिया में लैंगिक पक्षपात उत्पन्न करेगा और यौन शोषण की विविध वास्तविकताओं को नज़रअंदाज़ करेगा।

4. तुलनात्मक समझ
  • लैंगिक-विशिष्ट प्रावधान (जैसे बलात्कार कानून) महिलाओं के विरुद्ध पितृसत्तात्मक हिंसा से निपटने के उद्देश्य से बनाए गए हैं।
  • इसके विपरीत, पॉक्सो जैसे लैंगिक-तटस्थ कानून एक संवेदनशील वर्ग—बच्चों—की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं, चाहे अपराधी का लिंग कोई भी हो।
  • यह संतुलन संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और गरिमा का अधिकार) दोनों के अनुरूप है।

निष्कर्ष

संरक्षण बाल लैंगिक अपराध अधिनियम (POCSO Act), 2012 को उसकी भाषा, उद्देश्य और विधायी मंशा—तीनों आधारों पर लैंगिक-तटस्थ रूप में ही पढ़ा जाना चाहिए।

“जब कानून का उद्देश्य बच्चों को यौन शोषण से बचाना हो, तब अपराधी की पहचान (लिंग) सुरक्षा के दायरे को सीमित नहीं कर सकती।”

यह संपादकीय स्पष्ट करता है कि संसद की चुप्पी अनजानी नहीं, बल्कि सोचा-समझा निर्णय है—ताकि भारत की बाल-सुरक्षा व्यवस्था समावेशी, न्यायपूर्ण और संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप बनी रहे।


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