The Hindu Editorial Analysis in Hindi
11 December 2025
एक ऐसा फैसला जो न्यायिक कार्य का परित्याग है
(Source – The Hindu, International Edition – Page No. – 8)
विषय: जीएस पेपर II – राजनीति और शासन | न्यायपालिका | शक्तियों का पृथक्करण
प्रसंग
यह संपादकीय सुप्रीम कोर्ट के 16वें राष्ट्रपतिीय संदर्भ (2024) पर दिए गए निर्णय की आलोचना करता है, जो राज्यपालों की शक्तियों और संवैधानिक प्राधिकारियों के लिए समय सीमा निर्धारित करने के प्रश्न से संबंधित था। लेखक का तर्क है कि यह निर्णय, यद्यपि संविधान के पाठ के प्रति निष्ठावान प्रतीत होता है, न्यायिक दायित्वों से विमुख होने जैसा है — एक ऐसा दृष्टिकोण जिसमें न्यायालय ने संवैधानिक नैतिकता और संस्थागत संतुलन के संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका निभाने से परहेज़ किया।

- मूल प्रश्न – संवैधानिक समय सीमाओं का अभाव
भारतीय संविधान उच्च पदस्थ संवैधानिक प्राधिकारियों के कार्यों के लिए समय सीमा के संबंध में लगभग मौन है, जैसे:
राष्ट्रपति (अनुच्छेद 111),
राज्यपाल (अनुच्छेद 200),
दसवीं अनुसूची के अंतर्गत स्पीकर (दलबदल मामलों में)।
ये सभी पद अर्ध-न्यायिक अथवा विशुद्ध संवैधानिक कार्य करते हैं, परंतु उनके द्वार किए जाने वाले निर्णयों में विलंब कई बार संवैधानिक गतिरोध उत्पन्न कर देता है।
समय-सीमा के अभाव ने इन पदों को उत्तरदायित्व की संवैधानिक भावना को दरकिनार करने का अवसर दिया है।
उदाहरण:
कई स्पीकरों ने दलबदल मामलों पर निर्णय को अनिश्चितकाल तक टाल दिया, जिससे दोषियों को बिना दंड पूरे कार्यकाल तक पद पर बने रहने का अवसर मिला। इसी प्रकार कई राज्यपालों ने राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों को लंबित रखकर राज्य शासन को बाधित किया।
- उत्पन्न विसंगति और उसके परिणाम
समय-सीमा के अभाव ने संवैधानिक पदाधिकारियों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को रोकने की सुविधा प्रदान की है। इससे एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है:
क्या किसी संवैधानिक प्राधिकारी की निष्क्रियता या विलंब संविधान की मूल भावना को निष्प्रभावी कर सकता है?
निष्क्रियता अनुच्छेद 14 (कानून का शासन) तथा अनुच्छेद 21 (सुशासन के अधिकार) को कमजोर करती है क्योंकि इससे शासन और विधायी प्रक्रिया दोनों ठप हो सकती हैं।
लेखक का मानना है कि न्यायालय का दायित्व था कि वह संविधान की गतिशील व्याख्या करते हुए ऐसी प्रक्रियागत रिक्तियों को भरे ताकि लोकतांत्रिक सिद्धांत सुरक्षित रह सकें।
- सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
न्यायालय ने माना कि संविधान में अनुच्छेद 200 और 201 जैसे प्रावधानों में जानबूझकर कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है, इसलिए न्यायिक रूप से समय-सीमा थोपना उचित नहीं होगा।
उसका तर्क था कि ऐसा करना अन्य संवैधानिक पदों के अधिकारक्षेत्र में हस्तक्षेप होगा।
लेखक इसे विडंबनापूर्ण और प्रतिगामी मानता है, क्योंकि यह राज्यपालों द्वारा अनिश्चित काल तक विधेयक रोक कर संवैधानिक प्रक्रिया को बाधित करने को वैधता प्रदान करता है।
- विडंबना और उसके प्रभाव
यह निर्णय निर्वाचित विधानसभाओं की कीमत पर राज्यपालों की शक्ति को मजबूत करता है, जिससे संघवाद और शक्तियों के पृथक्करण की भावना कमजोर होती है।
न्यायपालिका की यह अनिच्छा संवैधानिक नैतिकता के विपरीत है, जिसकी वकालत डॉ. भीमराव अंबेडकर ने की थी।
प्रभाव:
राज्यपाल अब किसी विधेयक को अनिश्चित काल तक लंबित रख सकते हैं।
स्पीकर दलबदल संबंधी निर्णय टालते रह सकते हैं, जिससे राजनीतिक दुरुपयोग बढ़ सकता है।
यह संवैधानिक शासन में जनता के विश्वास को कमजोर करता है।
- डॉ. अंबेडकर की चेतावनी और संवैधानिक नैतिकता
4 नवम्बर 1948 के विचार-विमर्श में डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने चेताया था कि प्रशासन का वास्तविक व्यवहार संविधान के रूप को बिगाड़ सकता है।
उन्होंने आग्रह किया था कि भविष्य की न्यायपालिका हर संवैधानिक प्रावधान की व्याख्या संवैधानिक नैतिकता के आधार पर करे।
संवैधानिक नैतिकता का सिद्धांत यह अपेक्षा करता है कि सभी संवैधानिक पदाधिकारी ईमानदारी, उत्तरदायित्व और संयम के साथ कार्य करें तथा प्रक्रिया को राजनीतिक सुविधा का माध्यम न बनने दें।
- आगे का मार्ग
लेखक का सुझाव है कि न्यायपालिका को निम्नलिखित मामलों के लिए वाजिब समय-सीमाएँ निर्धारित कर हस्तक्षेप करना चाहिए:
राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर निर्णय,
स्पीकरों द्वारा दलबदल मामलों का निपटान,
चुनाव आयोग द्वारा अयोग्यता संबंधी कार्रवाई।
ऐसा करना अनुच्छेद 142 की भावना (पूर्ण न्याय) के अनुरूप होगा और संवैधानिक दक्षता को बढ़ाएगा।
न्यायिक झिझक भविष्य में कार्यपालिका को संवैधानिक मौन का दुरुपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करेगी।
निष्कर्ष
इस मामले में न्यायालय की संयमित भूमिका उसकी कमजोरी बन गई है।
संविधान के पाठ के प्रति निष्ठा निभाने के प्रयास में उसने संवैधानिक क्रियाशीलता को कमजोर कर दिया है।
समय-सीमाएँ तय करने से इनकार कर न्यायालय ने संस्थागत ठहराव को वैधता प्रदान की है, जिससे लोकतंत्र और संवैधानिक उपायों में जनता का भरोसा कम होता है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि न्यायपालिका अपनी नैतिक और सुधारात्मक भूमिका को पुनः स्थापित करे और सुनिश्चित करे कि हर संवैधानिक पद उत्तरदायी, समयबद्ध और लोकतांत्रिक शासन के प्रति संवेदनशील बना रहे।